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25 जुलाई 2010

कविता -- जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में



आज किसी विषय विशेष पर लिखने का मन नहीं किया। इस कारण सोचा कि अपनी एक कविता ही आपको पढवा दें। बताइयेगा कि कैसी लगी? साथ में दो फोटो अपनी तरह के..........


(ये हैं हमारे स्टायलिश भांजे)
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फिर जिन्दा होकर लौटा हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में।
जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में।।
अपनों को जाते देखा है,
गैरों को आते देखा है,
दुःख की तपती धूप है देखी,
सुख का सावन देखा है,
सतरंगी मौसम लाया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में।
जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में।।
जीवन से जो जीत गया,
मौत को उसने जीता है,
कर्म हो जिसका मूल-मंत्र,
वह जीवन-पथ पर जीता है,
जीवन-विजय सिखाने आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में।
जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में।।
जीते कभी समुन्दर से,
कभी एक बूँद से हार गये,
उड़े आसमां छूने को,
पहुँच आसमां पार गये,
चाँद-सितारे लाया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में।
जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में।।


(इनकी तो अपनी ही स्टायल है)


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