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27 अप्रैल 2009

जूते की महिमा भली फ़िर भी सब अनजान


जूते पर जूता, जूते पर जूता....रहा नहीं गया। निकाली अपनी डायरी और कभी की गई जूता स्तुति आपके सामने। अब लगा कि ‘‘सकल चीज संग्रह करै, काउ दिन आवै काम’’....आज काम आ गई कविता....उनके काम आ रहा है जूता।

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जूते की महिमा भली फिर भी सब अनजान,
रक्षक पैरों का भला फिर भी पाये अपमान।
फिर भी पाये अपमान जोड़ी इनकी न्यारी,
आज की दुनिया में कहाँ दिखती ऐसी यारी।
मिल कर आपस में सदा हम सबको हैं दिखते,
कभी किसी के पैर में नहीं होते बेरंगे जूते।।

धर्म-कर्म में देखिए जूतों की न कोई काट,
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या हो श्मशान घाट।
या हो श्मशान घाट सभी जगह ये जाते,
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी इन्हें अपनाते।
जूतों के नाम पर कोई करता नहीं अधर्म,
सब धर्मों में है बड़ा प्यारा जूता धर्म।।

बिन लाइसेंस के मिल गया सुन्दर सा हथियार,
मौका जैसे ही मिले करो वार पर वार।
करो वार पर वार हर उलझन सुलझाये,
सामने वाले के सिर की ये खुजली मिटवाये।
अपना कहना है यही पहनो ये रातो-दिन,
जीवन न कट पायेगा जूते दादा के बिन।।

इससे बड़ी चुनावी चकल्लस तो शायद ही कोई होगी......सो आज भी नहीं।

4 टिप्‍पणियां:

  1. जूते कितने पड़ चुके और अभी कुछ शेष।
    बहरी सत्ता सुन सके जूते का संदेश।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  2. बहुत बढिया व सही लिखा है।

    धर्म-कर्म में देखिए जूतों की न कोई काट,
    मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या हो श्मशान घाट।
    या हो श्मशान घाट सभी जगह ये जाते,
    हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी इन्हें अपनाते।
    जूतों के नाम पर कोई करता नहीं अधर्म,
    सब धर्मों में है बड़ा प्यारा जूता धर्म।।

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  3. बहुत अच्छा लिखा है आपने.. आभार

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  4. बहुत अच्छा लिखा है आपने.. आभार

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