इन्सान की फितरत किस तरह की है खुद इन्सान भी नहीं बता पाता है। कभी किसी बात को बुरा कहता है और कभी उसी बात के समर्थन में खड़ा हो जाता है। राजनैतिक दलों की बात को यहाँ नहीं लिया जायेगा, जैसा कि न्यायालयों में कुछ विशेष प्रकार की सामग्री को सबूत के तौर पर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता और यदि वे किसी के द्वारा प्रस्तुत भी की जाती हैं तो उनको सबूत नहीं माना जा सकता है। इसी तरह अपनी फितरत बदलने में राजनैतिक दलों का कोई मुकाबला नहीं है, इसी कारण वे यहाँ की चर्चा में शामिल नहीं हैं।
फितरत की बात हो रही थी, ऐसा मुझे लगा ब्लाग की सैर करके और नित्य प्रति मिलने वालों को देखकर। कई बार तो लगता है कि आदमी ने ये कहा है तो वह कुछ समय तो इस पर अमल करेगा पर ऐसा नहीं हो पाता है। एक दो दिनों की बात तो अलग है कुछ लोग तो एक दो पल को भी अपनी बात पर कायम नहीं रह पाते हैं।
यहाँ सवाल ये है कि आज के हालात ऐसे हो गये हैं या फिर आदमी की फितरत ही ऐसी थी। यदि आज ही ऐसे हालात हुए हैं तो फिर समूचे घटनाचक्र पर विचार करना होगा और यदि ऐसा पहले से होता आया है तो क्यों बात-बात पर युवा पीढी को दोषी बनाया जाता है?
बात दोषारोपण की नहीं है, हुआ यूँ कि हमारे कुछ विचारों को लेकर ब्लाग के कुछ साथियों को कुछ आपत्ति सी हुई। क्या आपत्ति हुई ये तो स्पष्ट नहीं किया पर एक बात तो साफ हो गयी कि हमारे विचारों में ऐसा कुछ तो है जो लोगों के लिए आपत्ति का विषय भी है। आभी तक तो हम सोचा करते थे कि मन में आया और लिख दिया, लिखा भी ऐसा नहीं है जो आपत्तिकारक हो। सीधी-सीधी भाषा, सीधे-सीधे विचार और शब्दावली भी साफ-सुथरी और एकदम सरल; अब आपत्ति वाली बात कहाँ आ गई? हाँ, यदि उस विशेष विषय को ही बताया होता तो कुछ सुधार करने का प्रयास करते।
बात जहाँ तक फितरत वाली है तो इतना कहेंगे कि जिन सज्जन का मेल प्राप्त हुआ है उन्हें खुद इस तरह की शब्दावली का प्रयोग करते देखा है कि उसे सभ्य समाज की भाषा कदापि नहीं कहेंगे। पर क्या करियेगा, फितरत की बात है.............
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