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09 जनवरी 2009

तृष्णा के वशीभूत

वर्तमान में किस तरह हरेक आदमी में जल्दी से जल्दी ताक़तवर बनने, सुविधा संपन्न बनने, धनवान बनने की ललक (इसे ललक न कह कर तृष्णा कहें तो अधिक उपयुक्त होगा) बढ़ती जा रही है. धन की लालसा में व्यक्ति किसी भी हद तक कुछ भी कर गुजरने को बेताब है. विगत कुछ वर्षों के आर्थिक उतार-चढाव के मध्य हुए आर्थिक घोटालों ने बताया है कि देश के एक आम आदमी के मन में भी रातोरात रुपये को दोगुना-तीनगुना और भी कई गुना करने कि तीव्रतर लालसा भर गई है. रुपये को तीव्रतर गति देने के लिए पहले व्यावसायिक वर्ग ही जिम्मेवार माना जाता था पर आज देखा गया है कि आम आदमी अपने मेहनत की कमाई को भी आसानी से सट्टेबाजों के हाथों में सौंप रहा है.

हर्षद मेहता का घोटाला काण्ड हो या फ़िर समय-समय पर सामने आते और भी कई दूसरे घोटाले, सभी ने जनता को कोई भी सबक नहीं सिखलाया है. वर्तमान में आर्थिक क्षेत्र में आई मंदी और अभी हाल ही में सत्यम के घोटाले ने दिखाया है कि जनता के धन का दुरूपयोग अधिकाधिक होने लगा है. घोटालों कि कलाबाजी, आर्थिक संसाधन के अधिकाधिक रूप से बढ़ाने की लालसा को पहले भी देखा जाता रहा है पर अब लगातार होते आर्थिक घोटालों से लगता है कि देश का आर्थिक शक्ति होने का सच एक सपना भर ही है जिसे आंकडों के विशेषज्ञ ही पैदा कर रहे हैं. यदि हमारा देश आर्थिक क्षेत्र में महाशक्ति होता (महाशक्ति न सही एक शक्ति ही होता तो भी चलता) तो शायद हम किसी भी दूसरे देश की अर्थव्यवस्था के आगे नतमस्तक न होते।

हमारे देश के लोगों में ही नहीं समूचे संसार में इस समय अर्थ-तंत्र काम कर रहा है और यही कारण है की हर एक वास्तु, हर एक सम्बन्ध को अब धन के तराजू पर तौला जाने लगा है. धन के प्रति लोलुपता का ये चलन समाज के हित में कतई नहीं है पर समाज में अच्छे-बुरे का फर्क होने के बाद भी लोगों में जाग्रति देखने को नहीं मिल रही है.

3 टिप्‍पणियां:

  1. समाज में अच्छे-बुरे का फर्क होने के बाद भी लोगों में जाग्रति देखने को नहीं मिल रही है
    bilkul sahi kaha aap ne

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  2. पूरा वातावरण ही खराब हो गया है .बैठकर सोचने की फुर्सत ही नहीं है किसी के पास !

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  3. परेशान न हो- एक साईक्लिक ट्रेन्ड होता है. इसी से उम्मीद की जा सकती है कि एक दिन वह जागृति भी आयेगी.

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