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30 दिसंबर 2008

ये कलियुग है यहाँ सब चलता है

कई दिनों से मन में आज की स्थिति को देख कर कुछ विचार कविता के रूप में कुलबुला रहे थे पर कविता की शक्ल नहीं ले पा रहे थे. कविता के लिए हमारा मानना है कि ये एक बार में विचारों की धारा-प्रवाह की वांगी है. यदि इसको रोक-रोक कर कई बार में बनाया जाए तो इसमें बनावटीपन आ जाता है. हम व्यक्तिगत रूप से कविता के बनावटीपन से हमेशा से दूर रहे हैं और कविता की भलाई के लिए उसको भी बनावट से दूर रखते रहे हैं। इसी कारण जितना जो कुछ बन सका वो आपके सामने है...............इससे ज्यादा जब बनेगा तो वह विचारों की प्रवहता को उस तरह समाहित न कर सकेगा जैसा कि अभी करता.
रे मनुष्य! तू क्यों बिलखता है?
ये कलियुग है यहाँ सब चलता है।
बाप बेटी से,
भाई बहिन से,
करता दुष्कर्म है।
बाज़ार में बिकता,
माँ का गर्भ,
नारी की शर्म है।
रिश्तों के नाम पर,
हर जगह अब,
होता अधर्म है।
अधर्म देख इतने तू क्यों ठिठकता है?
ये कलियुग है यहाँ सब चलता है।

3 टिप्‍पणियां:

  1. नव वर्ष की आप और आपके समस्त परिवार को शुभकामनाएं....
    नीरज

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  2. आपको तथा आपके पुरे परिवार को नव्रर्ष की मंगलकामनाएँ...साल के आखिरी ग़ज़ल पे आपकी दाद चाहूँगा .....

    अर्श

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  3. बहुत अच्छा िलखा है आपने । जीवन और समाज की िवसंगतियों को यथाथॆपरक ढंग से शब्दबद्ध किया है । नए साल में यह सफर और तेज होगा, एेसी उम्मीद है ।

    नए साल का हर पल लेकर आए नई खुशियां । आंखों में बसे सारे सपने पूरे हों । सूरज की िकरणों की तरह फैले आपकी यश कीितॆ । नए साल की हािदॆक शुभकामनाएंें-

    http://www.ashokvichar.blogspot.com

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