10 अक्तूबर 2016

चूके सुधार के बड़े अवसर से

चार वर्ष पहले जब युवा मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश सत्ता में आये तो लगभग सभी ने ऐसा मान लिया था कि प्रदेश की भलाई से सम्बंधित कुछ कार्य अवश्य ही सामने आयेंगे. ऐसा उनके युवा, जागरूक, उच्च शिक्षित होने के कारण हुआ था. तब पारिवारिक सहमति से उनके मुख्यमंत्री बनने को जनता ने अहमियत न देकर उनको हर्ष के साथ स्वीकार किया था. समाजवादी पार्टी की आधारभूत छवि से इतर उनके बयानों में एक गंभीर प्रशासनिक पद की छाप स्पष्ट रूप से दिखती थी. उनके कार्यों का केंद्र बहुतायत में उनका गृहनगर भले ही रहा हो मगर बहुतायत योजनाओं, कार्यों में प्रदेश की जनता को लाभ भी मिला. गृहनगर के कार्यों की आलोचनाओं के बीच उन्हें अन्य कार्यों के लिए जबरदस्त प्रशंसा ही मिली. लैपटॉप का वितरण हो, लखनऊ मेट्रो मामला हो, कन्या धन वितरण हो, समाजवादी पेंशन हो सभी में उनकी दूरगामी सोच की तारीफ की गई. समय बीतता रहा, कार्य होते रहे मगर इसके बाद भी युवा मुख्यमंत्री अपने परिवार और पार्टी के बुजुर्गजनों के नियंत्रण में ही कार्य करते से नजर आये. अधिसंख्यक मामलों में उनको अपने इन बुजुर्गों के सामने असहाय सा देखा-पाया गया. ऐसी स्थिति के बाद भी आशान्वित लोग ये मान रहे थे कि नवोन्मेषी होने के कारण वे किंचित असहाय से भले ही दिख रहे हों किन्तु असफल नहीं हैं. उसके पीछे का एक कारण अखिलेश का हँसमुख दिखना, मेलजोल वाला व्यक्तित्व समझ आने के साथ-साथ उनकी तरफ से आते बयानों में गंभीरता दिखाई देती थी. 


इधर विगत डेढ़-दो वर्षों से उनकी कार्यशैली देखने के बाद लगने लगा था जैसे कि वे इन वरिष्ठजनों की प्रेतच्छाया से बाहर आने को व्याकुल हैं. उनके कार्यों, उनकी प्रशासनिक क्षमता, कार्यशैली, बयानों के आधार पर महसूस किया जा रहा था जैसे कि वे इन बुजुर्गों के नियंत्रण में परिपक्व ही हुए हैं. विधानसभा चुनावों की आहट को भली-भांति महसूस कर रहे प्रदेश में यदि नजर दौड़ाई जाये तो अखिलेश यादव के अलावा कोई और व्यक्ति मुख्यमंत्री पद के योग्य दिखाई भी नहीं दे रहा है. ऐसा सिर्फ सपा में ही नहीं वरन सभी दलों में है. किसी के पास वर्तमान में ऐसा कोई चेहरा नहीं जो मुख्यमंत्री के तौर पर निर्विवाद रूप से स्वीकार्य हो. ऐसे में न केवल सपा पक्षधर लोगों की तरफ से वरन गैर- समाजवादी दलों के समर्थकों की तरफ से भी ऐसी चर्चाएँ होने लगी थीं कि प्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश तो अच्छा काम कर रहे हैं बस वे अपने पिता-चाचा की छाया से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. कहीं न कहीं खुले स्वरों में, दबे स्वरों में इसकी चर्चा आम हो गई थी कि अखिलेश अपने बुजुर्गों के नियंत्रण में पूरी तरह से हैं और वे लोग ही उन्हें खुलकर काम नहीं करने दे रहे हैं.

ऐसी नियंत्रण की स्थिति से बाहर निकलने की छटपटाहट अखिलेश में देखने को मिली. चुनावी वर्ष में उनके द्वारा कार्यों का लेखा-जोखा बेहतर तरीके से सामने लाया जाने लगा. विगत कई वर्षों की जातिवादी राजनीति, समर्थकों की गुंडई, जबरिया कब्जे की घटनाओं के बीच खिसकते जनाधार को वापस लाने की कवायद उनके द्वारा की जाने लगी थी. सपा मुखिया मुलायम सिंह द्वारा समय-समय पर मंत्रियों, समर्थकों, कार्यकर्ताओं को सीख देने वाली भाषा में उनके द्वारा की जाने वाली विसंगतियों का स्वीकार्य छिपा होने के बाद भी अखिलेश ने समूचे मामलों को बड़ी ही सहजता से निपटाने का प्रयास किया. इसी बनाव-बचाव की स्थिति के बीच अचानक तूफ़ान सा आ खड़ा हुआ, जिसने न केवल समाजवादी पार्टी की आंतरिक कलह को सामने रखा, न केवल उनके पारिवारिक मतभेद को उजागर किया बल्कि अखिलेश की छवि को भी तार-तार किया. विगत कुछ समय से दो-दो, चार-चार घटनाओं के सहारे सामने आता सपा का मामला किसी से छिपा नहीं है, उससे साफ़ ज़ाहिर है कि कहीं न कहीं पार्टी स्तर पर अखिलेश की बढ़ती छवि को ही कम करने या कहें कि समाप्त करने की कोशिश की गई है.

पहले मुख़्तार अंसारी के दल का विलय रोकना फिर दागी मंत्री को बाहर का रास्ता दिखाना इस बात की पैरवी कर रहा था कि अखिलेश कुछ अच्छा करने की कोशिश में हैं, भले ही ये कोशिश चुनावों को देखते हुए है. ऐसे सशक्त क़दमों के उठाये जाने के तत्काल बाद उनको प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया जाना, फिर उसके बाद के नाटकीय घटनाक्रम के पश्चात् न केवल उनके चाचा के समर्थकों का शक्ति प्रदर्शन वरन उस दागी मंत्री की वापसी होना अखिलेश के कद को ही कम करता है. अखिलेश समर्थकों को पार्टी से जुड़े तमाम पदों, संगठनों से हटाया गया. उनके समर्थक एमएलसी हटाये गए. वर्चस्व दिखाए जाने का ये खेल महज इतने पर ही नहीं रुका. जिस दल का विलय अखिलेश नहीं चाहते थे, उस दल का विलय हुआ. दागी मंत्री की न केवल वापसी हुई वरन दोबारा मंत्री भी बनाया गया. इसके बाद भी अखिलेश शांत क्यों बने रहे. क्या अपने पिता मुलायम के आदेश के चलते? क्या पिता की कतिपय अंदरूनी मजबूरियों के चलते? क्या अपने परिवार की इज्जत की खातिर? इस बिंदु पर अखिलेश को समझना चाहिए कि वे किसी एक परिवार के मुख्यमंत्री नहीं हैं वरन पूरे प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं. जहाँ किसी मुख्यमंत्री के पास इतनी शक्ति, इतने अधिकार नहीं कि वह अपने मंत्रिमंडल के भ्रष्ट मंत्री को बाहर का रास्ता दिखा सके तो उसका मुख्यमंत्री बने रहना सवालिया निशान है. समाजवादी की गिरती छवि के बीच अखिलेश की अपनी छवि, अपनी लोकप्रियता में जबरदस्त इजाफा हुआ था जो इस प्रकरण के बाद पूरी तरह से विलुप्त हो गया है. समूचे प्रदेशवासियों के बीच एक सन्देश स्पष्ट रूप से चला गया कि वे तमाम सारे निर्णय लेने के बाद भी अपने परिजनों के, वरिष्ठ पार्टीजनों के नियंत्रण में हैं.

जिस समय शिवपाल और उनके समर्थकों द्वारा सड़क पर शक्ति प्रदर्शन किया जा रहा था, उनकी वापसी के साथ-साथ रामगोपाल, अमर सिंह को बाहर किये जाने के नारे लग रहे थे, चाय के साथ वार्ताओं के दौर चल रहे थे, लखनऊ से लेकर दिल्ली तक सरगर्मियाँ बढ़ी हुई थीं. लेने-छोड़ने के दावे किये जा रहे थे तभी अखिलेश को कठोर और सशक्त कदम उठाये जाने की जरूरत थी. परिवार की एकता के लिए, पिता की इज्जत के लिए उनका खामोश रहना भले ही तारीफ काबिल कदम हो किन्तु एक मुख्यमंत्री के नाते, उच्च प्रशासनिक दायित्व के चलते निकाले गए दागी मंत्री की वापसी, वापस लिए गए पदों की बहाली किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं है. इससे बेहतर होता कि अखिलेश मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देकर सूबे में चुनाव की माँग कर देते. आज नहीं तो कल चुनाव तो होना ही है, पर अखिलेश के त्यागपत्र से उनकी लोकप्रियता, कद में जबरदस्त वृद्धि हो जाती. आखिरकार पूर्व मुख्यमंत्री के तौर पर मिले अपने पिता मुलायम के बँगले को छोड़कर दूसरे बँगले में अखिलेश का जाना स्पष्ट करता है कि सबकुछ सही नहीं हुआ है. कुछ इसी तरह से पद छोड़कर अखिलेश बहुत कुछ सही करने का सन्देश अवश्य दे सकते थे. प्रदेश को, लोकतंत्र विरोधियों को, अपने विरोधियों को एक सार्थक सन्देश देने में अखिलेश चूक कर गए. हो सकता है कि इस चूक की कीमत उन्हें भी आगामी विधानसभा चुनावों में उठानी पड़ जाये.


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