07 जून 2015

बदलते सामाजिक प्रतिमान


मानव विकास की अवस्था का कारण शिक्षा को माना जाता रहा है. विकास के इस क्रम में उसने नए-नए अविष्कार किये, नए-नए तरीकों से ज्ञान अर्जित किया, नए-नए मानकों को स्थापित किया. आदिकाल में मानव ने अपने ज्ञान को प्रकृति से प्राप्त किया, अपने अनुभवों से प्राप्त किया. यहीं से उसके विभिन्न प्रकार की शिक्षा ग्रहण की. कालांतर में गुरुकुल बने, गुरु बने, आश्रम बने, विद्यालयों का निर्माण किया गया और शनैः-शनैः शिक्षा की वर्तमान पद्धति हमारे सामने आई. पढ़-लिख कर मानव ने अपना विकास किया, समाज का विकास किया, विज्ञान, तकनीक, चिकित्सा आदि का विकास किया. इस शैक्षिक विकास ने जहाँ एक तरफ समाज का भला किया वहीं दूसरी तरफ समाज में एक तरह का अप्रत्यक्ष नुकसान भी किया है. संभवतः ये बात स्वीकारने योग्य न लगे किन्तु ये सत्य है कि पढ़े-लिखे इन्सान से कहीं न कहीं समाज में नुकसान बहुत ज्यादा किया है. देखा जाये तो पढ़-लिख जाने के बाद इंसान ने समाज के बने-बनाये प्रतिमानों को विखंडित करने का कार्य किया, उनका ध्वंस करने का कार्य किया. यकीनन ऐसे प्रतिमानों का ह्रास होना ही चाहिए जो समाज को बाँध कर रखते हैं, समाज को पीछे ले जाते हैं, समाज में विकास की अवधारणा को खंडित करते हैं किन्तु पढ़े-लिखे समाज ने ऐसे प्रतिमानों के साथ-साथ उन सामाजिक प्रतिमानों को भी नष्ट किया जिनके सहारे समाज में एक प्रकार की सामाजिकता बनी हुई थी. शिक्षित इंसान का एक नकारात्मक पहलू ये भी रहा कि उसने विखंडित प्रतिमानों के स्थान पर ऐसे प्रतिमानों की स्थापना की जिनके द्वारा समाज नकारात्मक दिशा में भी जाता दिखा, समाज में आपसी मतभेद बढ़ते दिखे, प्रतिद्वंद्विता का विद्वेष देखने को मिला.
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पढ़े-लिखे समाज में पारिवारिकता में ह्रास देखने को मिला, आपसी रिश्तों में मर्यादा टूटती दिखी, आधुनिकता का नाम लेकर फूहड़ता संबंधों में नजर आने लगी, प्रकृति, ईश्वर आदि को लेकर न केवल भ्रामक वरन कुत्सित तथ्यों का प्रचार-प्रसार किया गया. इस नकारात्मकता ने न मानवीय संवेदनाओं का क्षरण किया, पारिवारिकता का क्षरण किया, प्रकृति को नुकसान पहुँचाया. शिक्षित होने के बाद इंसान ने तर्क-वितर्क करने के साथ-साथ कुतर्क करना भी सीख लिया. ऐसे में उसके लिए धरती, हवा, पानी, मृदा, वृक्ष, जीव आदि में ईश्वर की उपस्थिति को सिरे से खारिज कर दिया. हम सभी जानते हैं कि भले ही इन सबमें किसी भी तरह की ईश्वरीय सत्ता का समावेश न हो किन्तु हमारे पुरखों ने इन्हें सुरक्षित और संरक्षित करने के लिए ही इन सबमें ईश्वर की उपस्थिति का निर्धारण किया था. पढ़े-लिखे समाज ने सिरे से इसे नकारते हुए प्रकृति का निर्दयता से विदोहन किया. जंगलों, नदियों, जीव-जंतुओं आदि को नष्ट करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. इसी तरह का कार्य उसने पारिवारिकता को, सामाजिकता को विखंडित करने में किया.
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यहाँ ये कहने का अर्थ कदापि ये नहीं कि इंसान जब अशिक्षित था अथवा कम पढ़ा-लिखा था तो ज्यादा  था वरन ये बताने का भाव है कि शिक्षित होने के बाद इंसान ने सही-गलत को अपने नजरिये, स्वार्थपरकता के आईने से देखना शुरू कर दिया है. जहाँ, जिस स्थिति में उसको लाभ दिखता है वो कदम उसके लिए सही है शेष गलत हैं. इसी वजह से उसने अपने सिवाय शेष अन्य को नकारने का कार्य भी किया है. इसका दुष्परिणाम ये हुआ कि इंसान समाज की भरी भीड़ में भी खुद को अकेला महसूस करता है, परिवार के बीच भी खुद को गैर-पारिवारिक समझता है, निराश-हताश महसूस करता है. शिक्षित होने का, पढ़े-लिखे होने का अर्थ सामाजिक प्रतिमानों का विकास करना, सामाजिकता का, पारिवारिकता का विकास करना था न कि इनका नाश करना. समाज विकास के बीच यदि इंसान इंसानियत का, मानवता का, सामाजिकता का, पारिवारिकता का विकास भी कर पाए तो उसका शिक्षित होना सही मायनों में सफल सिद्ध होगा.

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