30 मार्च 2017

पहली हवाई-यात्रा से पहुँचे पोर्ट ब्लेयर : अंडमान-निकोबार यात्रा

कोई काम पहली बार किया जा रहा हो तो उसमें उत्साह, उमंग, रोमांच जैसी अनुभूति होती है. कुछ ऐसा ही हमारे साथ हो रहा था. पहली बार अंडमान-निकोबार द्वीप समूह की यात्रा और पहली बार ही हवाई-यात्रा करने का अवसर हाथ आने वाला था. टिकट की बुकिंग से लेकर उसकी अन्य औपचारिकताओं के बारे में समुचित जानकारी इकठ्ठा कर मारी थी. कई वर्षों की हाँ-ना के बाद अंडमान-निकोबार जाने का कार्यक्रम बन पाया था, सो उसमें कोई अड़ंगा नहीं चाह रहे थे, किसी भी तरह का. इधर कुछ वर्षों से हमारी यात्राओं के साथ एक अजीब सा संयोग जुड़ता रहा है. कहीं भी जाने का कार्यक्रम बनाया तो उसमें किसी न किसी तरह का व्यवधान आ गया. दो बार जम्मू-कश्मीर का प्रोग्राम बनाया तो वहाँ बाढ़ के चलते नहीं जा पाए. नेपाल जाने का फ़ाइनल हो गया था तो वहाँ भूकंप ने तबाही मचा दी. इसी तरह एक साल अपनी छोटी बहिन दिव्या के पास जाने को बड़ोदा के लिए ट्रेन में बैठ भी गए तो बीच रास्ते उतरना पड़ा, वहाँ चालू हो गए हार्दिक पटेल के उत्पात के कारण. हाल ही में पहली बार अंडमान-निकोबार की यात्रा जब प्लान कर रहे थे तो उस समय भी अड़ंगा लगने जैसा माहौल बन गया था. समाचारों से पता चला कि हैवलॉक में तूफ़ान आने से बहुत सारे लोग वहाँ फँस गए हैं. तब उस कार्यक्रम को आगे बढ़ाना पड़ा. इस बार यात्रा फ़ाइनल हो गई थी. चुनावी मौसम होने के कारण बसों का चलना लगभग बंद सा था, सो झाँसी से ट्रेन पकड़ने की सुविधा के लिए कार बुक कर ली थी. इस यात्रा के लिए आरंभिक अड़ंगे रात में ही लगते दिखे, जब सोते समय अचानक गर्दन की नस खिंच गई और उसका हिलना-डुलना बंद सा हो गया. लगभग एक घंटे की मालिश, कसरत, मशक्कत के बाद गर्दन नार्मल हुई. दूसरा अड़ंगा लगता सुबह समझ आया जबकि कार ड्राईवर ने फोन पर बताया कि उसकी कार चुनाव ड्यूटी के लिए पुलिस प्रशासन ने पकड़ ली है. कोई घंटे भर बाद उसी ने अपने परिचित की निजी कार की व्यवस्था करवाई और हम लोग झाँसी के लिए निकल सके.


पहली हवाई-यात्रा का रोमांच तो हम तीनों लोगों को महसूस हो रहा था क्योंकि हम तीनों (हमारी, पत्नी निशा और बेटी परी) की ये पहली हवाई-यात्रा थी. सामान का वजन, सारे आवश्यक कागजात, पहचान-पत्र आदि सँभालकर झाँसी से दिल्ली पहुँचे. घर वालों के लिए देर रात दिल्ली उतरना चिंता का कारण बना हुआ था. इस कारण नॉएडा में रह रही छोटी बहिन रिमझिम और लखनऊ में रह रहा छोटा भाई हर्षेन्द्र फोन से लगातार संपर्क में रहे. रिमझिम ट्रेन यात्रा से ही उबेर कैब बुक करने, फिर टैक्सी से एअरपोर्ट रूट, टैक्सी किराये आदि की जानकारी देती रही. दिल्ली में कैब सम्बन्धी आरंभिक अड़ंगे से निपटते हुए देर रात लगभग दो बजे एअरपोर्ट पहुँच गए. फ्लाइट सुबह सवा सात बजे थी जिस कारण एअरपोर्ट पर सुरक्षा, चेक-इन, बोर्डिंग पास आदि औपचारिकतायें सुबह पाँच बजे के आसपास से शुरू हो जानी थी. जरा से आराम के चक्कर में सोते रह जाने के अनजान डर के कारण होटल में रुकने के बजाय एअरपोर्ट पर रुकना ज्यादा सही लगा. वहाँ पहुँचकर लाउन्ज में पड़ी तमाम कुर्सियों में से अपनी मनपसंद जगह छाँटकर उन्हीं पर पसर लिए.


सोना तो हुआ नहीं पर आराम जैसा कुछ हो गया था. बिटिया रानी भी नई जगह के उत्साह में कभी इधर-उधर टहलने लगती, कभी लेट जाती. समय होते ही हम लोग आवश्यक औपचारिकताओं को निपटाने में लग गए. सुरक्षा जाँच के समय कृत्रिम पैर के चलते अधिकारी ने हमें अलग रूम में ले जाकर जाँच की अनुमति अपने अधिकारी से माँगी. कृत्रिम पैर को अलग स्कैन मशीन से जाँचने के बाद संतुष्ट अधिकारी ने अन्दर जाने की अनुमति दे दी. उसी अधिकारी से जब हमने फोटोग्राफी करने सम्बन्धी जानकारी चाही तो उसने हँसते हुए जवाब दिया कि आप हमारी सुरक्षा व्यवस्था को छोड़कर कहीं भी फोटोग्राफी कर सकते हैं. गेट नंबर 49 से टाटा विस्तारा की फ्लाइट हम लोगों को पकड़नी थी. वहाँ बने मार्गदर्शक चिन्हों के सहारे आगे बढ़ते चले. उस समय आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता और गर्वानुभूति हुई जब अन्दर सूर्य नमस्कार मुद्राओं को दर्शाता स्मारक दिखाई दिया. सुबह की पहली किरण फूट कर बाहर उजियारा करने वाली थी और अन्दर हम लोग सूर्य नमस्कार मुद्राओं के साथ फोटोग्राफी करते हुए आलोकित हो रहे थे. गेट तक पहुँचने के लिए जगह-जगह मोबाइल प्लेटफ़ॉर्म बने हुए थे, जिन पर बिटियारानी उछल-कूद करते हुए, मस्ती करती चली जा रही थी. 



निश्चित समय पर संकेत होते ही हम लोग प्लेन में सवार हुए. क्रू मेम्बर्स के द्वारा स्वागत, समय-समय पर आवश्यक खाद्य-पदार्थों का वितरण, फ्लाइट सम्बन्धी अन्य जानकारियों का दिया जाना आदि सबकुछ व्यवस्थित, नियंत्रित सा संचालित हो रहा था. खिड़की के बाहर बादलों का रुई के फाहों की तरह कभी साथ-साथ उड़ना, कभी प्लेन के नीचे आ जाना, कभी एकदम साफ़ आसमान अद्भुत अनुभव का एहसास करा रहा था. दिल्ली से पोर्ट ब्लेयर को चली फ्लाइट को कोलकाता में थोड़ी देर रुकना था. प्लेन के उतरने के पूर्व कोलकाता की बड़ी-बड़ी ऊंची इमारतों का खिलौनों के जैसे दिखना, सड़कों, नदी आदि का किसी मानचित्र सा दिखाई देना आँखों को लुभा रहा था. कोलकाता एअरपोर्ट का नाम नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के नाम पर है. वहाँ लगे बड़े से बोर्ड पर चमकते वास्तविक नेता का नाम देखकर मन ही मन नेताजी को नमन किया. लगभग चालीस मिनट रुकने के बाद हम लोगों को लेकर प्लेन दोबारा उड़ चला. 







पोर्ट ब्लेयर उतरने के लगभग बीस-पच्चीस मिनट पहले क्रू मेम्बर्स की तरफ से ख़राब मौसम होने के संकेत देते हुए सीट बेल्ट बाँधने के निर्देश दिए गए. सामान्य स्थिति में बना हुआ प्लेन हलके-हलके से हिचकोले खाता हुआ समझ आया. उस समय प्लेन घनघोर बादलों के बीच से गुजर रहा था. आसमान में उड़ते बादलों को खिड़की के एकदम करीब महसूस करना अद्भुत था. अंडमान-निकोबार की सीमा में घुसते ही खिड़की से टापुओं की हरियाली, समुद्र का नीला-हरा रंग आँखों को आकर्षित कर रहा था. धीरे-धीरे प्लेन ने उतरना शुरू किया. बस्ती नजर आ रही थी. पोर्ट ब्लेयर की नैसर्गिक सुन्दरता अपना बखान खुद कर रही थी. लगभग साढ़े बारह बजे दोपहर में जब पोर्ट ब्लेयर में कदम रखा तो सबसे पहले उस वीर पुरुष को नमन किया जिसके नाम से पोर्ट ब्लेयर के एअरपोर्ट का नामकरण किया गया है; जिसके नाम से सेलुलर जेल के अंग्रेज अधिकारी तक भयभीत रहते थे; जिसको भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में दो बार काला पानी की सजा सुनाई गई थी. जी हाँ, वीर सावरकर (विनायक दामोदरदास सावरकर) को प्रणाम करते हुए हम लोग एअरपोर्ट के बाहर जाने वाले गेट पर आ पहुँचे.




 छोटा भाई नीरज, बिटिया आशी के साथ प्रसन्नचित्त मुद्रा में पहले से ही मौजूद था. एअरपोर्ट पर मोबाइल ऑन करते ही सबसे पहले उसके वहाँ आ जाने सम्बन्धी कॉल मिल गई थी. छह घंटे प्लेन की (दिल्ली से पोर्ट ब्लेयर), लगभग छह घंटे ट्रेन की (झाँसी से दिल्ली), दो घंटे कार की (उरई से झाँसी) की यात्रा के साथ-साथ लगभग ढाई घंटे झाँसी रेलवे स्टेशन पर ट्रेन के इंतज़ार का समय और लगभग साढ़े पाँच घंटे दिल्ली एअरपोर्ट पर रुकने का समय आदि मिलाकर लगभग बाईस घंटे की यात्रा के बाद घर पहुँचकर सुकून मिला. बहू नेहा के हाथ की बनी चाय की चुस्की संग सबके हालचाल का आदान-प्रदान करते हुए, बतियाते हुए अंडमान-निकोबार आने का वर्षों से लटका कार्यक्रम पूरा हुआ. आप लोगों को लग रहा होगा कि इतने लम्बे सफ़र के बाद भी थकान जैसी कोई बात हमने नहीं की. अरे, इतने लम्बे सफ़र की थकान को तो बिटियारानी आशी ने अपनी मीठी-मीठी, रोचक बातों से कार में ही दूर कर दिया था. 

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