04 मार्च 2016

सुखमय बनायें बचपन



बच्चों की परीक्षाएँ आरम्भ हो चुकी हैं और उनके अभिभावकों द्वारा बालमन पर अतिरिक्त दबाव भी डाला जाने लगा होगा. सार्वजनिक रूप से भले ही अभिभावकों द्वारा इसे स्वीकार न किया जाये किन्तु आज का सत्य ये है कि अभिभावकों द्वारा अपने बच्चों पर प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष दबाव बहुत बुरी तरह से डाला जा रहा है. बचपन में ही अध्ययन को लेकर अतिरिक्त सजगता दिखाना, ज्यादा से ज्यादा अंक लाने की चाह, कक्षा में-विद्यालय में सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित होने की कामना करना, अन्य दूसरे बच्चों के साथ प्रतिस्पर्धा की भावना का नकारात्मक रूप विकसित करना आदि एक तरह से बच्चों के कोमल मन-मष्तिष्क पर असर डाल रहा है. ये सारा दबाव समूचे वर्ष भर तो काम करता ही है किन्तु इस दबाव का विकृत और भयावह रूप बच्चों की परीक्षाओं के समय देखने को मिलता है. दिन-दिन भर, गई रात तक, अलस्सुबह जगाकर किताबों में लगभग ठूंस देने की मानसिकता बहुतायत अभिभावकों में देखी जा रही है. ये अपने आपमें एक सत्य है कि आजकल शिक्षा को लेकर जिस तरह से कॉन्वेंट पद्धति का विकास हुआ, जिस तरह से अत्यधिक किताबों का बोझ बच्चों पर लादा जा रहा है, जिस तरह से कठिन से कठिन पाठ्यक्रम को मंजूरी दी जा रही है, जिस तरह से कमीशन के लालच में निजी प्रकाशकों की बहुतायत किताबों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है वो चिंता का विषय होना चाहिए. ये सब कुछ अकेले विद्यालय प्रबंधन की मंशा से नहीं हो रहा है, ऐसा अकेले निजी प्रकाशकों की मंशा से नहीं हो रहा है, ऐसा शिक्षा क्षेत्र में काम करने वाले दलालों-माफियाओं की मंशा से नहीं हो रहा है वरन इसमें कहीं न कहीं अभिभावकों की मंशा भी अन्तर्निहित है. ये बात और है कि अभिभावकों की ऐसी सहमति विद्यालय प्रबंधन की मंशा के साथ अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ जाती है.

एक पल को ऐसा करना अभिभावकों की मजबूरी मान ली जाये, एकबारगी ऐसा करने को अभिभावकों द्वारा अपने नौनिहालों को बेहतर शिक्षा देने का प्रयास मान लिया जाये किन्तु घर में जबरिया का माहौल बना देने को कतई सही नहीं कहा जा सकता है. बहुतायत में ये बच्चे अपने-अपने विद्यालयों में एक तरह का अनुशासनात्मक माहौल का बिगड़ा हुआ स्वरूप देखते हैं. क्लासरूम का माहौल, शिक्षा पद्धति का मानकीकरण स्वरूप न होना, अत्यधिक पाठ्यक्रम, एकाधिक रूप में रटने की मानसिकता को विकसित करने से बच्चों में स्कूलों के वातावरण के प्रति एक तरह का भय दिखता है. ऐसे में वो लगभग उसी तरह के माहौल को अपने घर में देखता है, अपने अभिभावकों में भी शिक्षक का अनुशासन देखता है, अधिकाधिक अंक लाने का दबाव देखता है तो बच्चा अनजाने ही अवसाद की स्थिति में चला जाता है. ऐसी स्थिति के आने पर ऐसे बच्चे गुमसुम, शांत, बिना किसी अतिरिक्त क्रिया-प्रतिक्रिया के देखे जा सकते हैं. डरे-सहमे से ये बच्चे किसी अनजान व्यक्ति के सामने सहजता से व्यवहार नहीं कर पाते हैं. न केवल उनके साथ बल्कि हमउम्र बच्चों के साथ भी उनको समन्वय करने में, सहयोग करने में समस्या होती है. ये स्थितियाँ आगे चलकर बच्चों में एकाकीपन की, अकेलपन की भावना विकसित करती हैं. जिसकी भयावहता उनके द्वारा गलत कदम उठाये जाने पर ज्ञात होती है. घर-बाहर-स्कूल आदि का दबाव ही कहा जायेगा जबकि नौनिहाल भी आत्महत्या जैसे जघन्य कदम उठाने लगे हैं, घरों से भागने लगे हैं.

संभव है कि आज के वैश्वीकरण के, भूमंडलीकरण के दौर में बच्चों को उन्नत तकनीक से, उच्चतम शिक्षा से, आधुनिक संसाधनों से संपन्न करना अभिभावकों की मजबूरी हो गई हो; ये भी संभव है कि बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा के चलते बच्चों में अधिकाधिक अंक लाने का दबाव बनाया जाने लगा है  किन्तु ये सब बच्चों के भविष्य को कहीं न कहीं नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है. अभिभावकों को चाहिए कि अपने व्यस्ततम समय में से कुछ समय निकालकर अपने बच्चों के साथ बिताने का काम करें. आज के दूषित वातावरण में बच्चों के लिए खेलने को पार्कों, मैदानों की कमी लगातार होती जा रही है तो इसका अर्थ ये नहीं कि बच्चों को सिर्फ कंप्यूटर, मोबाइल, टीवी के भरोसे ही छोड़ दिया जाये. उनकी भावनाओं को समझने के लिए, उनमें सहयोग की भावना विकसित करने के लिए, उनमें विश्वास जगाने के लिए अभिभावकों को बच्चों के साथ घुलना-मिलना चाहिए. इसके साथ-साथ अभिभावक इसका ध्यान अवश्य रखें कि बच्चों का वर्तमान यदि सशक्त होगा तो वे भविष्य की बुलंद इमारत अवश्य बनेंगे और यदि उनका वर्तमान ही भयग्रस्त, विश्वासरहित हुआ तो सुखद भविष्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती है.
 

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