20 फ़रवरी 2016

तिरंगा, सैनिक हैं सम्मान के हकदार

कल्पना कीजिये उस क्षण की जबकि आपके आसपास गोलियाँ चल रही हों, बम के धमाके हो रहे हों और उसी समय आपका कोई साथी, जो एक पल पहले आपके साथ था, दुश्मन की गोली का शिकार हो जाता है. सोचकर देखिये वो दृश्य जबकि परिवार के बड़े-बुजुर्गों के सामने उस युवा का पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटा रखा हुआ है, जो कुछ दिनों पहले उनके सामने खेला-कूदा करता था. यकीनन आप किसी भी विचारधारा के हों मगर ऐसे दृश्य आपको भाव-व्हिवल कर देंगे. निश्चित ही ऐसे किसी भी दृश्य को याद करके आपके आँसू छलक उठेंगे. आँसू फिर छलके और इस बार उस व्यक्ति की आँख में छलके जिसने अपने जीवन में का-कई बार अपनी आँखों के सामने अपने साथियों को अंतिम विदा लेते देखा होगा; कई-कई बार अपने साथ हँसी-मजाक करने वाले साथियों को अपनी आँखों के सामने, अपने हाथों में शहीद होते देखा होगा. वो दृढशक्ति का प्रतीक, वो बहादुरी का प्रतीक, शौर्य का जीता-जागता उदाहरण कहे जाने वाले जर्नल बख्शी को समूचे देश ने आँसू छलकाते हुए देखा. उनकी बातों में, उनके आँसुओं में एक दर्द दिखाई दिया. उनका कहना कि हम सैनिक बहुत अकेले हो गए हैं नितांत सत्य के करीब है.

जेएनयू प्रकरण के बाद से देश में लगातार सामने आती देशहित की, देश-विरोधी बातों, घटनाओं के बीच यदि सरकारी स्तर पर केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में तिरंगा लहराने की अनिवार्यता जैसी बात सामने आई है तो इसको जबरन तूल देने के बजाय स्वागत की दृष्टि से देखना चाहिए था. तिरंगे को फहराने के सम्बन्ध में जिस तरह से तर्क-कुतर्क किये जा रहे हैं, जिस तरह से सरकारी तानाशाही बताया जा रहा है, जिस तरह से सांप्रदायिक रंग देने का प्रयास किया जा रहा है वो निंदनीय है. असल में भारतीय परिवेश में आरंभिक काल से ही तिरंगे को आम नागरिकों से बहुत दूर रखा गया. गिने-चुने अवसरों पर तिरंगा फहराने के अलावा सामान्यजन को तिरंगे से परिचित होने का अवसर ही प्रदान नहीं किया गया. भला हो नवीन जिंदल का जिन्होंने के अदालती लड़ाई के बाद आम नागरिक को भी तिरंगा फहराने का अधिकार दिलवाया. हमारे देश में इसके बाद भी तिरंगे को सार्वजनिक स्थलों पर, सार्वजनिक जीवन में सहज भाव से लहराते नहीं देखा गया. इससे सामान्यजन में तिरंगे के प्रति वो सम्मान का भाव जग ही नहीं सका जो होना चाहिए था. इसके बाद भी ये सत्य है कि तिरंगे का फहराया जाना आज भी लोगों में जोश, जूनून पैदा करता है. देश में होने वाले अनेकानेक आन्दोलन इसके गवाह हैं.


बहरहाल, जिस तरह से तिरंगा फहराए जाने को लेकर तर्क-वितर्क का दौर चल रहा है उससे यकीनन उन सभी लोगों को ठेस पहुंची होगी जो तिरंगे को अपनी आन-बान-शान समझते हैं. जर्नल बख्शी के आँसू अपने में बहुत बड़ी बात कह जाते हैं. तिरंगे के लिए अपने आपको न्योछावर करने वाले सैनिको से पूछिए कि तिरंगे को लेकर चलती अनर्गल बहस का क्या अर्थ है? जी तिरंगे को देखकर जोश उमड़ पड़ता हो उसके फहराए, न फहराए जाने को लेकर किये जा रहे विवाद से लगता ही है कि वे सैनिक आज अकेले पड़ गए हैं जो इसी तिरंगे के लिए अपना सबकुछ छोड़कर रणभूमि में जमे रहते हैं. तिरंगा फहराने को लेकर जबरिया विवाद उठाते लोग क्या बताएँगे कि अफज़ल के नाम पर तो देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में प्रदर्शन होने लगते हैं, आयोजन होने लगते हैं मगर क्या वे एक पल को शहीद सैनिकों के लिए आयोजन भी करते हैं? ये अपने आपमें अत्यंत शर्मनाक है कि देश में तिरंगा फहराए जाने को लेकर विवाद हो रहा है. होना ये चाहिए था कि प्रत्येक शिक्षण संस्थान में, सार्वजनिक स्थलों पर, सरकारी कार्यालयों में, पार्कों आदि में तिरंगा अनिवार्य रूप से लहराता रहना चाहिए. इससे देश के व्यक्ति-व्यक्ति को तिरंगे से अपनत्व का भाव जागेगा, उसके साथ जुडाव महसूस होगा. तिरंगे पर विवाद पैदा करने वालों को ध्यान देना होगा कि ये विवाद महज देश के अन्दर ही नहीं वरन वैश्विक स्तर पर देखा जा रहा है, जो न केवल देश की वरन देशवासियों की छवि को ख़राब कर रहा है. हमारे जांबाज़ सैनिकों के प्रति असम्मान प्रकट कर रहा है. 

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