17 फ़रवरी 2016

बच्चों की मासूमियत खोने से रोकें

बचपन को मानव जीवन का सर्वाधिक सुखद कालखंड माना जाता है. ऐसा कहा जाता है कि यही वो अवस्था होती है जबकि किसी तरह की कोई परेशानी मनुष्य को नहीं होती है. न घर की समस्या, न बाजार-हाट की चिंता. बेफिक्री में बस खेलकूद, मस्ती, सैर-सपाटा करना और मासूमियत के साथ सभी तरह की शैतानियाँ करने के बाद भी अगली शैतानी के लिए मुक्त हो जाना. ऐसा बताया जाना, सुनाया जाना शायद आज के बच्चों को कपोल-कल्पना जैसा लगे क्योंकि अब ऐसी उन्मुक्त अवस्था देखने को बहुत ही कम मिल रही है. बच्चों की मासूमियत, उनका बचपना, उनकी शैतानियाँ, दिन-दिन भर की मौज-मस्ती न जाने कहाँ गुम हो गई है. आपको आश्चर्य नहीं लगता ये सब देखकर कि जिस मानवीय अवस्था को, आयुवर्ग को निश्चिंतता से मुक्त रहकर स्वच्छंद विचरण करना चाहिए आज उसके चेहरे पर भी चिंता की लकीरें साफ़-साफ़ देखने को मिलती हैं. जिन बच्चों को उन्मुक्त होकर अपने बचपन को जीना चाहिए वो भी तमाम सारी परेशानियों को लेकर आगे बढ़ रहा है.

ऐसा सब कहा जाना, लिखना किसी लेखकीय दिमाग की उपज नहीं वरन लगातार मिलते-दिखते बच्चोंके मनोभावों को जानने-समझने के बाद कहा गया है; उनके माता-पिता की सोच के साथ साक्षात्कार करने के बाद लिखा गया है. माता-पिता में अपने बच्चों के अधिकाधिक अंक लाने को लेकर आपस में एक तरह की होड़ सी लगी हुई है. एक-एक अंक को लेकर बच्चों पर जबरदस्त दवाब बनाया जाता है. स्कूल के साथ-साथ घर में भी एक तरह का कक्षानुमा माहौल बना देखकर बचपन अपने आपमें सहम सा जाता है. इस सहमे-सहमे बचपने से किस तरह की उन्मुक्तता की, स्वच्छंदता की उम्मीद की जा सकती है? बच्चों पर उनकी उम्र से अधिक दवाब के चलते वे अपनी नैसर्गिक प्रतिभा का विकास करने में स्वयं को अक्षम पा रहे हैं. उनकी प्रतिभा पर उनके माता-पिता का, परिजनों का, शिक्षकों का अजब सा दवाब काम करने लगता है. यही दवाब अक्सर बच्चों की मासूमियत का ह्रास कर उनमें कुंठा का भाव पैदा कर देता है.

माता-पिता के अप्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष दवाब के अतिरिक्त वर्तमान माहौल ने भी बच्चों की मासूमियत को छीना है. आज बच्चों के लिए खेलने-कूदने के मैदानों का, पार्कों का अभाव सा दिखने लगा है. बच्चों के साथ बढती दुर्वयवहार की घटनाओं के चलते भी बहुसंख्यक माता-पिता अपने बच्चों को बाहर निकलने से रोकने लगे हैं. बच्चों की बाहरी गतिविधियों पर अंकुश लगाया जा रहा है. इस अंकुश के चलते उनकी नैसर्गिक क्रियाविधि तो ख़तम हो ही रही है साथ ही सामूहिकता, समन्वय, सहयोग की भावना का विकास भी नहीं हो पा रहा है. मानवीय व्यक्तित्व के लिए आवश्यक इन लक्षणों के यथासमय विकास न कर पाने के कारण भी बच्चों में एकाकीपन की मानसिकता का विकास होने लगता है, जिसके चलते उनमें नकारात्मकता की भावना बढ़ने लगती है. बच्चों में बढ़ता एकाकीपन, नकारात्मकता उनको समाज से, बच्चों से, बचपन से दूर कर रहा है. माता-पिता जाने-अनजाने अपने बच्चों को ऐसी स्थिति से दूर रखने के लिए, उनको मनोरंजन प्रदान करने के लिए, उनको खेलने-कूदने के अवसर उपलब्ध करवाने के लिए मोबाइल, कंप्यूटर आदि उपकरणों का सहारा लेते हैं. एकबारगी भले ही इन उपकरणों से बच्चों को मनोरंजन उपलब्ध हो जाता हो किन्तु उनका शारीरिक, मानसिक विकास उस तेजी के साथ नहीं हो पाता है, जिस तेजी से इस अवस्था में होना चाहिए.


यहाँ ध्यान रखने योग्य तथ्य यह है कि यही बच्चे भविष्य की नींव हैं, इन्हीं बच्चों के द्वारा समाज का, देश का विकास होना है और यदि आज यही बच्चे विकसित अवस्था में नहीं होंगे तो कल को देश का, समाज का विकास कैसे करेंगे? ऐसी स्थिति से निपटने के लिए माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों पर पढ़ाई का, अधिकाधिक अंक लाने का अनावश्यक बोझ न डालें. पढ़ाई को रोचकता के साथ कराये जाने की व्यवस्था की जाये न कि बोरियत, बोझिलता के साथ बच्चों को शिक्षा प्रदान करवाई जाये. आज औद्योगीकरण, नगरीकरण के चलते भले ही मैदानों की, पार्कों की संख्या में गिरावट आई हो; बच्चों के साथ बढ़ती दुर्व्यवहार की घटनाओं के चलते भले ही उनका बाहर खेलना बंद करवा दिया गया हो किन्तु इसके चलते बच्चों को घर में कैद किये रखना भी उचित नहीं. माता-पिता को, शिक्षकों को चाहिए कि बच्चों को अपनी देख-रेख में स्कूल कैम्पस में, मोहल्ले में, सोसाइटी में खेलने-कूदने के अवसर प्रदान करवाएं. ध्यान रखें कि आपके ये बच्चे आपके भविष्य का आधार हैं, इनके आज को खोखला करके आप इनका ही भविष्य खोखला कर रहे हैं. 

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