03 दिसंबर 2015

स्त्री और धर्म


स्त्री और मंदिर फिर विवादों के केन्द्र में है. कहीं मंदिर में प्रवेश को लेकर, कहीं शनि देव पर तेल चढ़ाने को लेकर. आदिमानव से मानव बन चुके समाज में, आधुनिक से उत्तर-आधुनिक हो चुके समाज में, पुरातन को कब का विस्मृत कर इक्कीसवीं सदी की आधुनिकता में प्रविष्ट हो चुके समाज में आज भी बहुतायत में ऐसी घटनाएँ सुनाई दे जाती हैं जिनके केन्द्र में धर्म होता है, महिला होती है. कभी धर्म के नाम पर महिलाओं द्वारा किये जाते कथित अधर्म को रोकने की चर्चा होती है, तो कभी उसी महिला को अधर्मी बताकर उस पर ज़ुल्म ढाने का कथित धर्म निर्वहन का कार्य समाज के कथित ठेकेदारों द्वारा किया जाता है. धर्म के नाम पर महिलाओं को केन्द्र में रखने की मानसिकता पूरे समाज में कमोबेश एकजैसी ही दिखती है. कहीं मंदिर प्रबंधन के नाम पर पुरुष वर्ग द्वारा उसे केंद्र में रखा जाता है तो कहीं पारिवारिक संस्कारों की दुहाई देते हुए महिलाओं द्वारा ही महिला को निशाना बनाया जाता है. एक तरफ एक मंदिर प्रबंधन ने महिलाओं के ‘सही समय’ की जाँच किये बिना उसे मंदिर में प्रवेश देने से प्रतिबंधित कर रखा है वहीं कुछ इसी तरह का कार्य परिवार में दीर्घकाल से महिलाओं द्वारा ही महिलाओं को माहवारी के दिनों में रसोई में न जाने देने, धार्मिक कार्य करने से रोकने आदि के द्वारा किया जा रहा है.
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अब जबकि प्रगतिशील लोगों द्वारा महिलाओं के मंदिर में प्रवेश सम्बन्धी प्रतिबन्ध को लेकर विरोधी स्वर उठाये गए हैं, महिलाओं के समर्थन में कई-कई आवाजें उठाई गईं हैं तो आवश्यकता इसकी है कि ऐसे मामलों का सार्थक और सर्व-स्वीकार्य समाधान निकाला जाये. यहाँ समझने की बात है कि जिस धार्मिकता को खुद महिलाओं द्वारा गुलामी वाला कदम बताया जाता है; अनेक व्रतों, अनुष्ठानों, धार्मिक कृत्यों को महिलाओं द्वारा ही उनकी गुलामी बढ़ाने वाला सिद्ध किया जाता है; पारिवारिक धार्मिक अनुष्ठानों तक को पुरुष वर्ग की चाल बताया जाता हो तो ऐसे में समाज में स्त्रियों द्वारा मंदिर में प्रवेश को लेकर इतनी आकुलता क्यों दिखाई जा रही है? जिन धार्मिक कृत्यों, अनुष्ठानों को पुरुष द्वारा महिलाओं को गुलाम बनाने वाला सुनियोजित प्रयास बताया जाता हो उन्हें संपन्न करने की इतनी व्यग्रता महिलाओं में क्यों? जिन मंदिरों, धार्मिक स्थलों को महिलाओं द्वारा ये कहकर आरोपित किया जाता है कि ये महिलाओं को दैहिक रूप से शोषित किये जाने वाले अड्डे हैं तो ऐसे अड्डों पर प्रवेश करने की आतुरता महिलाओं में क्यों है? जिन देवताओं को महज पाखंड का, स्त्री-गुलामी का, स्त्री-देह भोग का पर्याय बताकर समय-समय पर महिलाओं द्वारा अपमानित किया जाता रहता है तो उन्हीं देवताओं को पूजने की तत्परता इन महिलाओं में क्यों है?
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ऐसा नहीं कि महिलाओं का प्रवेश मंदिर में नहीं होना चाहिए; ऐसा भी नहीं कि माहवारी के दिनों में किसी धार्मिक कृत्य में उनके सहभागी बनने से कोई विध्न आता हो; ऐसा भी नहीं कि महिलाओं द्वारा किसी देव विशेष के पूजन कर लेने से समाज में प्रलय आ जाएगी किन्तु महज प्रचार की, आत्ममुग्धता की दृष्टि से किये ऐसा जाने की मंशा को अवश्य निषेध किया जाना चाहिए. देखा जाये तो अभी हाल में हुई ऐसी घटनाओं पर विरोधी स्वरों के पीछे यही मंशा स्पष्ट हो रही है. एक तरफ धार्मिक कृत्यों को महिलाओं की स्वतंत्रता में बाधक सिद्ध करना और दूसरी तरफ धार्मिकता की माँग करना; एक तरफ खुद महिलाओं को महिलाओं द्वारा माहवारी के समय धार्मिक कृत्य करने से रोकना और दूसरी तरफ ऐसा किये जाने को पुरुष वर्ग की साजिश बताना; एक तरफ मंदिर में प्रवेश को लेकर आंदोलित होना दूसरी तरफ विरोध के लिए खुद को दैहिक रूप से स्वतंत्र बना देना कहीं न कहीं आंदोलनरत महिलाओं के दोहरेपन के रवैये को रेखांकित करता है. समाज में किसी भी गलत कार्य का विरोध होना चाहिए, किसी भी अमान्य स्थिति के विरोध में आन्दोलन होना चाहिए मगर महज विरोध की राजनीति के लिए विरोध नितांत भ्रम की स्थिति है, सर्वथा गलत है. मंदिर में महिलाओं के प्रवेश निषेध को लेकर यदि महिलाओं द्वारा हैप्पी टू ब्लीड जैसा अभियान छेड़ा जा सकता है तो इन्हीं जागरूक महिलाओं द्वारा उन महिलाओं के पक्ष में अभियान क्यों नहीं छेड़ा जाता जो आज भी खुले में शौच को मजबूर हैं; जो असमय अपनी शिक्षा को छोड़ दिए जाने को बाध्य कर दी जाती हैं; जो कम उम्र में कई-कई बच्चों की माँ बना दी जाती हैं; जो आज भी दहेज़ के नाम पर आये दिन प्रताड़ित की जा रही हैं; जो आज भी कार्यक्षेत्रों में अपने सहकर्मियों द्वारा शोषित की जा रही हैं; जो आज भी लोकतान्त्रिक रूप से प्रतिनिधि बनने के बाद भी पारिवारिक पुरुषों की गुलाम बनी हुई हैं; जो समान कार्य करने के बाद भी पुरुषों के समान अवसरों से वंचित रह जा रही हैं. सोचना होगा कि एक मंदिर में प्रवेश की अनुमति मिलने से, एक देवता को पूजने की आज़ादी मिलने से, माहवारी के दिनों में धार्मिक अनुष्ठान करने की स्वतंत्रता मिलने से महिलाएँ वाकई स्वतंत्र हो जाएँगी?

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