16 दिसंबर 2015

आरोपों से नैया पार नहीं होनी


चलिए, अनेक मोमबत्तियाँ जलाने और तमाम गोष्ठियाँ करने के बाद भी देश में लगातार महिलाओं के साथ शारीरिक दुराचार की घटनाएँ बढ़ती ही जा रही हैं. कुछ वर्ष पूर्व दिसम्बर की सर्द रात में दिल्ली की ह्रदयविदारक घटना ने समूचे देश को आंदोलित कर दिया था. उस घटना के तत्काल बाद ही महिलाओं की सुरक्षा हेतु अनेक नियमों, कायदों, कानूनों की चर्चा की गई, कुछ नए-नए प्रावधान अवतरित किये गए. कुछ और आवश्यक, अनिवार्य से लगने वाले कदम उठाये गए किन्तु समाज में महिलाओं के विरुद्ध होने वाले मामलों में ढाक के तीन पात वाली कहावत ही सिद्ध होते दिखी. कड़े से कड़े कानून की, कठोर से कठोर सजा की बात करने वाले समाज में महिलाओं की सुरक्षा के समुचित प्रयासों में किसी तरह की सकारात्मक प्रगति नहीं दिखाई दी. बलात्कार की, छेड़छाड़ की घटनाएँ पूर्व की तरह सामने आती रहीं बल्कि देखा जाये तो बहुत ही वीभत्स रूप में. ये अपने आपमें शर्म का विषय है कि आधुनिकता के नाम पर, इक्कीसवीं सदी के नाम पर हम लगातार वैश्विक स्तर पर अपने को सक्षम बताते जा रहे हैं वहीं महिलाओं, बच्चियों की सुरक्षा कर पाने में, उनके साथ दुराचार की घटनाओं को रोक पाने में पूरी तरह से नाकाम हो रहे हैं.
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दरअसल महिलाओं, बच्चियों से दुराचार, छेड़छाड़, बलात्कार, हत्या आदि के मामले में समाज की मनोदशा आज भी पूर्ण रूप से सशक्त होकर सामने नहीं आ सकी है. इसके साथ ही विडम्बना इसकी भी है कि ऐसे मामलों, समस्याओं का सकारात्मक हल निकालने के लिए मिल-बैठ कर प्रयास भी नहीं किये गए हैं. महिलाओं द्वारा ऐसी घटनाओं पर पुरुषवादी सोच का, पुरुष वर्चस्ववादी सोच का, पुरुष प्रधान समाज का आरोप लगाकर अपने आपको दायित्वमुक्त मान लिया जाता है. इसी तरह से पुरुषों द्वारा ऐसी किसी भी वारदात पर महिलाओं के पहनावे, उनके रहन-सहन, चाल-चलन को निशाना बनाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली जाती है. यहाँ हम सभी को समझना होगा कि महिलाओं के साथ हो रही घटनाओं का कोई समाधान इस तरह से आरोप-प्रत्यारोप के द्वारा निकलने वाला नहीं है. महिलाओं को सबसे पहले इस बात को समझने की आवश्यकता है कि ऐसी घटनाएँ सिर्फ पुरुषवादी सोच का परिणाम नहीं हैं. पीड़ित महिलाओं की मदद के लिए, उनके लिए संघर्ष करने वालों में पुरुष भी अपनी सकारात्मक भूमिका निभाते हैं. यदि ये कहा जाये कि महिलाओं का पहनावा ही उनके शारीरिक शोषण का जिम्मेवार है तो ये भी गलत है. समाज में यदि पुरुषों को अपनी इस मानसिकता को त्यागना होगा तो महिलाओं को भी प्रत्येक घटना में पुरुषवादी सोच की एकतरफा विसंगति को त्यागना होगा. इसी समाज में एक-दो नहीं अनेकानेक मामले ऐसे सामने आये हैं जहाँ महिला के शारीरिक दुराचार के मामले में महिलाओं की भी भूमिका रही है; जहाँ महिलाओं ने स्वार्थ, प्रगतिशीलता, अतिमहत्त्वाकांक्षा के चलते अपना शोषण करवाया है.
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स्पष्ट है कि समाज में जब तक स्त्री और पुरुष एकमत होकर ऐसी समस्याओं का समाधान नहीं निकालेंगे तब तक निश्चित समाधान निकल पाना पूर्णतः असंभव है. कानून का, नियमों का काम अपराधियों के मन में भय पैदा करना है, इसके अलावा नियम-कानून किसी भी और रूप में सक्षम नहीं हैं. हम सभी को अपनी मानसिकता में परिवर्तन करके ही अपराधियों के हौसलों को पस्त करने की आवश्यकता है. एक तरफ यदि परिवार में बेटियों जी जीवन शैली पर प्रतिबन्ध सा लगाया जाता है तो बेटों की जीवनचर्या आर अंकुश लगाये जाने की जरूरत है. यदि बच्चियों को अच्छे-बुरे की पहचान करवाई जानी आज की आवश्यकता है तो बच्चों को भी समझाए जाने की जरूरत है कि वे क्या अच्छा करें और क्या बुरा न करें. यदि लड़कियों को संयमित, संस्कारित, शीलवान बनाया जाना सामाजिकता है तो लड़कों को भी संस्कारों की, संयम की, शील की परिभाषा पढ़ाये जाने की सामाजिकता निभाने की जरूरत है. स्त्री और पुरुष का एकदूसरे को आरोपित करते रहना समाज में विघटन की गहरी खाई पैदा करने में लगा हुआ है, इस बात को समझते हुए ही आज समस्याओं का समाधान खोजने की आवश्यकता है. यदि निकट भविष्य में हम ऐसा नहीं कर पाए तो बस मोमबत्तियाँ जलाते रहेंगे, एकदूसरे को आरोपित करते रहेंगे और अपनी बहिन-बेटी को खोते रहेंगे.

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