03 नवंबर 2015

करवाचौथ व्रत का आयोजन किसलिए - सोचिये, विचारिये

भक्ति, आस्था के सागर में हिलोरें लेता हुआ पति-पत्नी के आपसी विश्वास-प्रेम का पर्व करवाचौथ बीत गया. चाँद को देखकर दिनभर से निर्जला व्रत रही पत्नी ने अपना उपवास खोला और अपने पति की लम्बी उम्र की कामना की. कितना हास्यास्पद सा लगता है आज के आधुनिक समाज में जबकि उन्नत और विकसित चिकित्सकीय सुविधाएँ, सेवाएँ भी किसी की मृत्यु को नहीं रोक पा रही हैं, चन्द महिलाएँ भूखे पेट रहकर चाँद से सिफारिश कर रही हैं अपने पति की उम्र बढ़ाने की. आपको लगता है हास्यास्पद या नहीं, सच-सच कहियेगा? संभव है कि आपको कई बार ये हास्यास्पद लगता हो और कई बार आप भारतीय संस्कृति के चलते इसे भक्ति-भाव से, आपसी समन्वय से जोड़कर देखते हों और हास्यास्पद न मानते हों. कितनी बड़ी विडम्बना है कि जहाँ एक तरफ हमारा समाज पढ़-लिख कर चाँद को अपने पैरों तले रौंदने को तैयार बैठा है वहाँ आज की युवा महिला पीढ़ी ही उसी चाँद की पूजा करते हुए अपने पति की दीर्घायु की कामना कर रही है. क्या है आखिर ये सब? क्यों है आखिर ये सब? किसलिए है आखिर ये सब? क्या महज इसलिए कि समाज को दिखाने के लिए पारिवारिक संस्कारों का निर्वहन करना है? क्या महज इसलिए कि कहीं न कहीं आधुनिक शिक्षित पीढ़ी और दकियानूसी होती जा रही है और मानती है कि उसके व्रत-उपवास से जीवन-चक्र में अन्तर आता है? क्या महज इसलिए कि इस तरह के आयोजन भारतीय स्त्रियों को विभिन्न क्रियाकलापों के लिए स्वतंत्रता प्रदान करते हैं? क्या महज इसलिए कि इस तरह के व्रत-उपवासों के द्वारा ऐसी स्त्रियाँ पतियों के दीर्घायु होने की कामना की आड़ में अपने वैधव्य को बचाना चाहती हैं? अंतिम बात शायद ज्यादा कड़वी महसूस हो किन्तु किसी न किसी रूप में एक सत्य ये भी है इस व्रत का.
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करवाचौथ व्रत का आयोजन किन सन्दर्भों, परिस्थितियों में आरम्भ हुआ था, इसकी अपनी अलग कहानी है किन्तु आज जबकि स्त्री-पुरुष संबंधों को, खासतौर से पति-पत्नी के आपसी संबंधों को भी स्त्री-विमर्श के सींकचे में जकड़ लिया गया हो; महिलाओं के किसी भी काम को पुरुषों से इतर और विशिष्ट बताकर स्त्री-पुरुष संबंधों में विभेद पैदा किया जा रहा हो; पुरुष के किसी भी कदम को स्त्री-विरोधी बताकर दोनों के बीच के संबंधों में ज़हर भरा जा रहा हो; जब आस्ता-विश्वास से भरे किसी भी कदम को, आयोजन को एहसान सिद्ध करने के प्रयास किये जाते हों तो ऐसे व्रतों के आयोजन भी संदिग्ध समझ आते हैं. संभव है कि किसी समय में ऐसे व्रत-उपवास का सन्दर्भ पति-पत्नी के आपसी विश्वास-प्रेम की अभिव्यक्ति करना रहा हो, ये सवाल उठाया जा सकता है कि इस अभिव्यक्ति के लिए पुरुष को व्रत रहने का प्रावधान क्यों नहीं किया गया? बहरहाल, समाज ने आधुनिकता के चलते इक्कीसवीं सदी में प्रवेश किया और फिर पुरातनकाल से चले आ रहे आयोजनों पर अनेक विमर्शधारियों द्वारा सवाल खड़े किये जाने लगे. पारिवारिक रिश्तों पर सवाल खड़े किये गए; भाई-बहिन के रिश्तों को कलंकित किया गया; सभी रिश्तों की बुनियाद को स्वार्थ से जोड़कर, आर्थिक तत्त्व से जोड़कर, नारी-देह से जोड़कर उसको विद्रूपता के साथ परिभाषित किया गया. नारीवादियों ने स्त्री-पुरुष के किसी भी कदम को अपने-अपने तरीके से परिभाषित किया और दोनों के संबंधों को स्वार्थमय सोच में बदलने का कुत्सित प्रयास किया. इसके लिए ऐसे व्रतों, आयोजनों, पर्वों को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है जो स्त्री-पुरुष से किसी न किसी रूप में आपस में जुड़े हुए हैं.

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रक्षाबंधन पर्व को बहुतायत नारीवादियों द्वारा बहिनों का शोषण करने वाला बता कर इस पर्व के साथ-साथ भाइयोंको भी कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है. एक प्रसिद्द नारीवादी लेखिका का यहाँ तक कहना है कि एक धागे के बंधवाने पर चंद रुपये देकर भाइयों द्वारा बहिनों का मुँह सालभर के लिए बंद कर दिया जाता है ताकि वे पुश्तैनी संपत्ति में हिस्सा न मांगें. क्या वाकई इस व्रत का आयोजन इसीलिए किया जाता है? कुछ इसी तरह के कुतर्क करवाचौथ को लेकर दिए जाने लगे हैं. पुरुष अपनी पत्नी की दीर्घायु के लिए  व्रत क्यों नहीं रहते रहे हैं, इसके कारण खोजने पड़ेंगे किन्तु एक तरफ इन्हीं नारीवादियों की मान्यता है कि व्रत रहने से, चाँद की पूजा करने से किसी की उम्र नहीं बढ़ती तो फिर वे नारीवादी पतियों के व्रत न रहने को आरोपित क्यों करती हैं? आज के वैज्ञानिक युग में जबकि एक तरफ स्त्रियों की शिक्षा, उन्नति, आर्थिक सशक्तिकरण की चर्चा की जा रही है वहीं इस तरह के कुतर्कों के द्वारा पत्नियों के व्रत को समर्थन दिया जा रहा है. कतिपय हिन्दी फिल्मों के चलते बहुतायत में नौजवान आज अपनी पत्नी के साथ इस दिन व्रत रहने लगा है तो उसका क्या सन्दर्भ निकाला जाये कि अब पत्नियाँ भी दीर्घायु होने लगेंगी? इसके क्या सन्दर्भ निकाले जाएँ कि चाँद की पूजा करने से, व्रत रहने से किसी व्यक्ति की आयु को प्रभावित किया जा सकता है? यदि ये सत्य नहीं है तो फिर नारीवादियों द्वारा क्या सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है? पत्नी द्वारा व्रत रखकर पति के ऊपर एहसान किये जाने की बात कह कर क्या साबित करने का प्रयास किया जा रहा है? यदि ऐसे व्रत-उपवासों से पति की आयु बढ़ रही होती तो देश में वैधव्य जीवन बिता रही स्त्रियों की संख्या इस कदर न होती. ऐसे व्रतों-उपवासों को महज आपसी विश्वास, प्रेम, स्नेह का परिचायक माना जाना चाहिए और उन्हें विवादों से दूर बनाये रखने का प्रयत्न किया जाना चाहिए. विवाद के नाम पर रिश्तों के कलंकित होने के सिवाय और कुछ नहीं मिलने वाला. यदि इसी को आधार बनाया जाए तो जिस तरह से नारीवादी पुरुष की आलोचना करते हुए स्त्रियों के व्रत रहने को एहसान बताते हैं ठीक उसी तरह से कहा जा सकता है कि कहीं करवाचौथ का व्रत पत्नियाँ अपने आपको वैधव्य से बचाने के लिए तो नहीं रखती हैं? आखिर उनके पति की उनसे पहले मृत्यु उनको वैधव्यपूर्ण जीवन दिखाती है. यदि व्रत-उपवास किसी की उम्र को प्रभावित करते हैं तो सोचिये और विचार करिए कि इस व्रत की वास्तविक असलियत है क्या, पति की दीर्घायु की कामना या फिर अपने को वैधव्य से बचाने का प्रयास? 
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