19 मई 2015

मेरा सच ही अंतिम सच


क्या हम सब स्वस्थ आलोचना करने की क्षमता खो चुके हैं? क्या हम सब स्पष्ट आकलन करने की दृष्टि नहीं रख रहे हैं? क्या पूर्वाग्रही होकर कार्य करना हमारी मानसिकता बन चुका है? ये चंद सवाल नहीं वरन हम सभी की मानसिक स्थिति को संशय में खड़े करने वाले बिंदु हैं. संसद हो या फिर न्यायालय, केन्द्र की सरकार हो या फिर राज्य की सरकारें, प्रधानमंत्री हो या फिर मुख्यमंत्री, राजनीति हो या फिर सामाजिक कार्य, राज्य की स्थितियाँ हों या फिर विदेश के साथ कोई समझौता, सीमा सुरक्षा का मसला हो या फिर घरेलू मामले, राजनेता हो या फिर अभिनेता, खिलाडी हो या फिर व्यवसायी, साधू-संत हो या फिर आतंकवादी आदि-आदि सभी बिन्दुओं को सिर्फ और सिर्फ एक दृष्टि से देखा जाने लगा है, एक ही तरीके से उसका आकलन किया जाने लगा है. आकलन करने का नजरिया भी ऐसा जिसमें आकलन करने वाला, आलोचना करने वाला स्वयं में निर्णय देने वाला बन जाता है. उसको सम्बंधित मामले के सम्बंधित पक्षों से कोई लेना-देना नहीं होता है वरन उसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ दूसरे पक्ष को नीचा दिखाना, उसको गलत साबित करना होता है. ऐसा करके लोग समझते हैं कि वे सम्बंधित पक्ष के समर्थक के रूप में खुद को स्थापित कर रहे हैं, संभव है कि ऐसा सही हो किन्तु इसके साथ ही बहुत बड़ा सत्य ये है कि इस तरह के कृत्य से, मानसिकता से समाज में वैमनष्यता ही फ़ैल रही है.
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इधर समाज में संचार साधनों के व्यापक प्रयोग के चलते, सूचना क्रांति के लगातार बढ़ते प्रभाव के चलते भी किसी तरह की सूचना को, तथ्यों को छिपाया जाना संभव नहीं रह गया है. इस सकारात्मकता के साथ-साथ इसके दुरूपयोग होने की, भ्रामक तथ्यों, सूचनाओं के फैलने की भी नकारात्मकता सामने आई है. बेलगाम ढंग से लोगों द्वारा अपने आपको ही एकमात्र सत्य सिद्ध करके घटनाओं, तथ्यों, सूचनाओं का प्रकटीकरण किया जा रहा है; अनेकानेक मसलों पर एकतरफा आकलन करके सामने वाले को गलत सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है. अभी हाल के दिनों में सामने आई कुछ घटनाओं से एहसास हुआ कि संचार साधनों का जितना सकारात्मक उपयोग हुआ है, उससे कहीं ज्यादा उनका दुरूपयोग किया जा रहा है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विदेश यात्रायें हों, उनकी सरकार का पहला वर्ष रहा हो, सलमान खान की सजा पर न्यायालय का रुख रहा हो, आसाराम की जमानत के किस्से रहे हों, दिल्ली में आम आदमी पार्टी की रैली में हुआ हादसा रहा हो, दिल्ली सरकार और केन्द्र के सम्बन्ध रहे हों, राज्यों के चुनाव का मसला रहा हो सभी मामलों में लोगों ने इस कदर तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की मानो उनसे ज्यादा प्रमाणिक जानकारी किसी और के पास नहीं है. कुछ इसी तरह का हाल नेपाल में आये भूकम्प के समय रहा. एक तरफ पुराने फोटो, वीडियो का सहारा लेकर लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ किया जा रहा था वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार विरोधी लोगों द्वारा नेपाल को दी जा रही मदद पर ही सवालिया निशान लगाये जा रहे थे. घटनाओं को देखे-समझे बिना, उनकी प्रमाणिकता को जांचे-परखे बिना, तथ्यों के सही-गलत का आकलन किये बिना हम सभी एकतरफा निर्णय देने में जुट जाते हैं.
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इसी तरह का एक ताजा मामला अरविन्द केजरीवाल की पुत्री द्वारा घूस देने सम्बन्ध में आया है. केजरीवाल समर्थकों का कहना है कि वो दिल्ली में भ्रष्टाचार की स्थिति को जांच रही थी, जबकि उनके विरोधी लोगों का कहना है कि अधिकारी ने रिश्वत ली नहीं. यहाँ भी देखा जाये तो सबके सब अपने-अपने पक्ष को सत्य साबित करने में लगे हुए हैं. एक पल को केजरीवाल की बेटी की जगह कोई साधारण व्यक्ति होता तो एक सम्भावना ये भी बनती कि केजरीवाल के समर्थक इस बात का हल्ला मचाते कि उनके विरोधी राजनैतिक दल वाले उनको बदनाम करने की साजिश कर रहे हैं. मोदी की विदेश यात्राओं का जिस तरह से विरोध हो रहा है, उससे पहले किसी ने भी यात्राओं के सही-गलत का आकलन नहीं किया है. ऐसी मानसिकता के लिए कोई एक पक्ष नहीं, कोई एक वर्ग नहीं, किसी एक राजनैतिक दल का समर्थक नहीं, किसी एक कलाकार-खिलाडी-उद्योगपति आदि का समर्थक नहीं वरन हम सब जिम्मेवार हैं. हम सभी भावावेश में, भावनाओं में अपने-अपने मानक निर्मित कर लेते हैं और उसी के अनुसार अपने नायक की स्थापना कर लेते हैं. इसके बाद उस नायक की किसी भी तरह की नकारात्मकता को न तो हम लोग देखना चाहते हैं और न ही पसंद करते हैं. निर्विवाद रूप से हम सभी को इस मानसिकता से ऊपर उठकर कार्य करने की आवश्यकता है. यदि निकट भविष्य में हम सभी आपस में मिलकर कोई सार्थक, समन्वयकारी रास्ता न निकाल सके तो सम्भावना इस बात की है कि हम सभी आपस में घनघोर शत्रुता निभाते नजर आयेंगे, एक-दूसरे के साथ दुश्मन सरीखा बर्ताव करते दिखाई देंगे. 

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