13 मई 2015

धनबल ही सबकुछ नहीं


मानवीय मन किस कदर परिवर्तनशील और किस कदर संशयकारी है इसका ज्वलंत उदाहरण न्यायालयों द्वारा अभी हाल में सलमान खान और जयललिता के सम्बन्ध में लिए गए निर्णयों से समझ में आता है. एक दशक से भी पुराने एक मामले में अभिनेता सलमान खान को सजा सुनाई गई और आनन-फानन में उनको जमानत भी मिल गई. एक अन्य मामले में जयललिता को भी अदालत ने दोषमुक्त पाया और सजा से मुक्ति देते हुए रिहाई दे दी. इन दोनों निर्णयों के आते ही एकाएक लोगों में विचार पनपने लगा कि इस देश में पैसे के दम पर कुछ भी करवाया जा सकता है. इसमें कोई दोराय नहीं कि बहुत से मामले, मुद्दे ऐसे रहे हैं जिनको धनबल ने प्रभावित किया है. इसके बाद भी ये कह देना कि धनबल से सब कुछ संभव है, एकमात्र और पूर्ण सत्य नहीं है. सलमान खान के मामले में देर से फैसला आने और फिर तुरंत ही जमानत मिल जाने को केंद्र सरकार के साथ उनके संबंधों का भी हवाला दिया जा रहा है, ऐसा ही कुछ जयललिता के निर्णय पर भी किया जा रहा है. न्यायालय ने इन दोनों मामलों में क्या पक्ष देखा, क्या सुना, किस-किस कागजात की बुनियाद पर जमानत का प्रावधान किया, ये तो अदालत ही जाने किन्तु जनमानस स्वयं अदालत बनकर बेबुनियाद तर्क-वितर्क करने में लगा हुआ है.
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संभव है कि वर्तमान के औद्योगीकरण, वैश्वीकरण के युग में जहाँ चारों ओर पैसे का बोलबाला हो वहाँ इन दोनों मामलों में सिर्फ धनबल को महत्त्व देना इन्सान की फितरत के परिवर्तनशील होने की निशानी को व्यक्त करता है. याद करिए कुछ समय पहले संजय दत्त की सजा को, सहारा प्रमुख सुब्रतो राय की सजा को, आसाराम बापू की सजा को, उससे भी काफी पहले लालू प्रसाद यादव की सजा को, तब इसी जनमानस ने अदालत पर अपना विश्वास व्यक्त करते हुए उसकी प्रशंसा की थी. उस समय जनता ने कानून सबके लिए बराबर है का पाठ बुरी तरह से याद रखा था और सबको पढ़ाया भी था. आज भी एक पल को यदि रुक कर विचार किया जाये तो क्या सहारा प्रमुख अथवा आसाराम धनबल के मामले में अथवा संबंधों के मामले में किसी से कमतर बैठते हैं, जो आजतक अपनी जमानत नहीं करवा सके हैं? ऐसा भी नहीं है कि भ्रष्टाचार के आरोपी जमानत पर बाहर नहीं आये हैं, ऐसा भी नहीं है कि शारीरिक शोषण के आरोपियों को जमानत न मिली हो फिर ऐसे क्या कारण हैं कि धनबल में पूरी तरह सक्षम, जनमानस के बीच अपनी सक्षम पैठ बनाये रखने वाले सुब्रतो राय और आसाराम अपनी जमानत नहीं करवा पा रहे हैं?
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कुछ इसी तरह के बिन्दुओं पर आकर ही न्याय व्यवस्था पर विश्वास बना रहता है. संभव है कि सलमान खान अथवा जयललिता के मामले में कुछ इधर-उधर किया गया हो किन्तु इन दो निर्णयों से समूची कानून व्यवस्था को, केंद्र सरकार को दोषी ठहरा देना किसी भी रूप में उचित नहीं. जनमानस के इस तरह के दुधारी रुख से उन लोगों का मनोबल गिरता है जो समाज में वाकई ईमानदारी से काम कर रहे हैं और वे लोग और मुखरता के साथ सामने आते हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना है. ये सही है कि भीड़ तर्क-वितर्क से इतर होकर सिर्फ भेड़चाल में विश्वास करती है किन्तु वर्तमान दौर में जबकि मीडिया, सोशल मीडिया घनघोर रूप से सजग दिख रहा है; बुद्दिजीवी कहा जाने वाला वर्ग भी सोशल मीडिया के द्वारा खुद को प्रत्येक घटनाक्रम से जोड़े हुए है; समाज में हो रही एक-एक हलचल पर विश्लेष्णात्मक दृष्टि लगाकर उसका आकलन करने में लगा है तब इस तरह के विचार कहीं न कहीं मानवीय स्वभाव के उथलेपन का द्योतक नजर आते हैं. समाज में सभी काम सिर्फ धनबल से संभव है कि विचारधारा का परित्याग भले न किया जा सके किन्तु ऐसे लोगों को हतोत्साहित करने की जरूरत है जो ऐसा समझकर  लोगों के हितों पर कुठाराघात करने लग जाते हैं.

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