28 अप्रैल 2015

संवेदनहीनता बनी मौत का कारण


जंतर-मंतर पर आम आदमी पार्टी की रैली में एक व्यक्ति की मृत्यु की खबर नेपाल में आये भूकम्प के कारण ठन्डे बक्से में डाल दी गई हैं. संवेदनहीनता का इससे अच्छा उदाहरण और क्या मिलेगा कि एक व्यक्ति पेड़ पर चढ़कर आत्महत्या करने का उपक्रम करने में लगा हो और दूसरी तरफ भीड़ का हिस्सा बने लोग उसका वीडियो बनाने में, फोटो खींचने में मस्त हों. नेता मंच से भाषण दिए जा रहे हों, पुलिस शांति से समूचा तमाशा देखने में लगी हो, ये संवेदनशीलता तो प्रदर्शित नहीं करता है. व्यक्ति ने आत्महत्या की अथवा असावधानी में उसके द्वारा बनाये गए फंदे से उसकी मौत हो गई; किसी दवाब में उसने ऐसा किया या किसी ने ऐसा करने को उकसाया; वो वाकई लाचार-परेशान किसान था अथवा राजनीति में अपने अस्तित्व की तलाश कर रहा था आदि-आदि नजरिये से इस घटना को देखा जा सकता है किन्तु एकमात्र सत्य यही है कि एक व्यक्ति की मौत सैकड़ों लोगों के सामने हो गई, एक राज्य के मुख्यमंत्री के सामने हो गई.

ऐसे में इस मौत का जिम्मेवार किसे माना जायेगा? क्या वह व्यक्ति जिम्मेवार है जो बिना आगा-पीछा सोचे इस तरह का कृत्य करने में लगा था? क्या वो भीड़ जिम्मेवार है जो समूचे घटनाक्रम को एक तमाशे की तरह देख रही थी? या पुलिस प्रशासन जिम्मेवार है जो उस व्यक्ति को बजाय पकड़ने के चुपचाप खड़ा देख रहा था? या फिर कि वो मुख्यमंत्री, वो पार्टी जिम्मेवार है जिसकी रैली में आया व्यक्ति उन्हीं के सामने आत्महत्या जैसा कृत्य करने के लिए पेड़ पर चढ़ जाता है? गंभीरता से इन सवालों को समझने की आवश्यकता है क्योंकि ये एक हादसे में हुई मृत्यु नहीं है, असावधानी में हुई मौत नहीं है वरन कहीं न कहीं समाज में पनप रही संवेदनहीनता की परिचायक है.

इधर विगत कुछ वर्षों से युवाओं में राजनीति के प्रति एक अजब सा आकर्षण पैदा हुआ है. जल्द से जल्द आलाकमान की निगाह में आने की लालसा कुछ भी कर गुजरने को प्रेरित करती है. ऐसा ही कुछ गजेन्द्र के साथ भी हुआ. उसने अपनी राजनैतिक महत्त्वकांक्षा के चलते विगत एक दशक में चार राजनैतिक दलों की यात्रा कर डाली, और तो और विधानसभा चुनाव में हाथ भी आजमाया डाला. संभव हो कि उस व्यक्ति ने अपनी राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने, आलाकमान की निगाह में आने के लिए ऐसा दुस्साहस किया हो और उसके अतिशय उत्साह में हुई एक असावधानी ने उसको मृत्यु के आगोश में पहुँचा दिया.

इसके अतिरिक्त आम आदमी पार्टी के नेताओं की, मंचस्थ मुख्यमंत्री, उप-मुख्यमंत्री सहित अनेक नेताओं की भूमिका को भी कम दोषी नहीं माना जा सकता है. वर्तमान में वे आन्दोलनकारियों का जत्था नहीं वरन दिल्ली की सरकार के रूप में स्थापित हैं. साथ ही वो रैली खुद आम आदमी पार्टी ने बुलाई थी, जिसमें पार्टी के चंद नेता ही नहीं बल्कि खुद मुख्यमंत्री, उप-मुख्यमंत्री भी वहाँ उपस्थित थे. ऐसे में किसी भी व्यक्ति का आत्महत्या करने का ऐलान करते हुए पेड़ पर चढ़ जाना, अपने गमछे का फंदा बनाकर गले में डाल लेना आदि नकारने योग्य स्थितियां नहीं हैं. सरकार होने के नाते, रैली के आयोजक होने के नाते आम आदमी पार्टी की जिम्मेवारी बनती थी कि वो पूरी कड़ाई से उस व्यक्ति को पेड़ से नीचे उतारने के आदेश पुलिस प्रशासन को देते. इसके उलट पार्टी के नेता मंच से महज अपील सी करते रहे और बार-बार केंद्र सरकार, राज्य सरकार के सम्बन्धों का रोना रोते रहे.

ऐसा नहीं है कि जंतर-मंतर पर हुई मृत्यु ही सामाजिक संवेदनहीनता की एकमात्र परिचायक है वरन इससे पूर्व भी अनेक घटनाएँ, दुर्घटनाएं इस तरह की सामने आती रही हैं जिनमें समाज के संवेदनहीन होने के लक्षण स्पष्ट परिलक्षित हुए हैं. सड़क दुर्घटनाओं में, कहीं सुनसान में, अनजान व्यक्ति के साथ होने वाली किसी भी विषम स्थिति में लोगों का उस घटना से बचकर निकलना आम बात बनी हुई है. जंतर-मंतर पर हुई उस मौत को किसी किसान द्वारा की गई आत्महत्या बताने से किसी की लापरवाही पर पर्दा नहीं डाला जा सकता है. भविष्य में ऐसी दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो इसके लिए सभी राजनैतिक दलों को मिलकर काम करने की आवश्यकता है, समाज को संवेदित करने की आवश्यकता है, लोगों को यथोचित राजनैतिक मूल्यों को समझाए जाने की आवश्यकता है. 

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