17 अप्रैल 2015

फिर एक बार महाविलय का प्रयोग


महाविलय हुआ, एक परिवार का पुनर्निर्माण हुआ पर समझ से परे ये रहा कि ये छह दलों का मिलन हुआ अथवा छह हताश-निराश राजनीतिज्ञों का मिलन हुआ है? देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था के साथ कितना बड़ा और भद्दा मजाक है कि इन छह लोगों का, दलों का मिलन किसी भी रूप में राजनैतिक विकास हेतु नहीं, राष्ट्रीय विकास हेतु नहीं वरन मोदी को रोकने के उद्देश्य से हुआ है. ऐसा किसी राजनैतिक विश्लेषक ने अथवा किसी पूर्वाग्रही व्यक्ति ने नहीं वरन स्वयं इन्हीं लोगों ने स्पष्ट किया है. ऐसे में जबकि इनका उद्देश्य स्पष्ट है और बिहार विधानसभा चुनाव भी सामने दिख रहे हैं, जनता परिवार की कालावधि पर किसी भी तरह का संशय नहीं रह जाता है. और वैसे भी इस तरह के राजनैतिक प्रयोग कमोबेश इन्हीं लोगों द्वारा समय-समय पर किये जाते रहे हैं और उन सभी प्रयोगों के पीछे का मूल तत्त्व सत्ता-प्राप्ति ही रहा है.
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जहाँ तक याद पड़ता है कुछ इस तरह का आंशिक सफल प्रयोग इंदिरा गाँधी के विरोध स्वरूप सामने आया था और देशव्यापी आन्दोलन ने गैर-कांग्रेसी गठबंधन को पहली बार केंद्र में ‘सत्ता सुख’ उठाने का अवसर प्रदान किया था. ‘सत्ता सुख’ महज इस कारण से क्योंकि उस सफलतम आन्दोलन के बाद भी ये कुनबा अपने आपको संयमित नहीं रख सका, अपनी एकजुटता को बनाये नहीं रख सका और समय से पूर्व ही धड़ाम हो गया. इसके बाद भी समय-समय पर इन हताश-निराश लोगों की राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाएं उमड़ती-घुमड़ती रहीं और बारम्बार गठबंधन के, मोर्चे बनाये जाने के असफल प्रयोग दोहराए जाते रहे. वर्ष १९८९ में बना राष्ट्रीय मोर्चा हो अथवा १९९६ में बना संयुक्त मोर्चा या फिर वर्ष २००८ और वर्ष २००९ में तीसरा मोर्चा बनाये जाने की कवायद, सभी में एक अनिवार्य पक्ष सामने आता दिखा है और वो था राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा. और यही कारण रहा कि सभी प्रयास बुरी तरह से असफल सिद्ध हुए और मतदाता, देश की जनता ने खुद को ठगा सा महसूस किया. वर्ष १९८९ में बने राष्ट्रीय मोर्चा का समापन वर्ष १९९१ में ही हो गया और सफलता के रूप में दो प्रधानमंत्री देश को दे गया. इसी तरह वर्ष १९९६ में बने संयुक्त मोर्चा में सात दलों की सहभागिता रही और अंततः वर्ष १९९८ में पूर्णतः भागते समय इस मोर्चे ने भी देश को दो प्रधानमंत्री दे दिए. इसके बाद के दोनों प्रयासों में न कोई स्वरूप बन पाया और न ही किसी को प्रधानमंत्री बनाया जा सका. वर्तमान महाविलय का भविष्य अतीत में बने मोर्चों की छाया में देखा जा सकता है. दो-दो वर्ष के प्राथमिक मोर्चे और देश को दोनों बार दो-दो प्रधानमंत्रियों की सौगात. अब जबकि इस महाविलय में सभी छह सदस्य सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री पद की तरफ ही देखने में लगे हैं तो इसके भविष्य का अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है.
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इस विलय का भविष्य क्या होगा, कालावधि कितने माह, वर्ष की होगी ये कहना अभी जल्दबाजी ही होगी क्योंकि चुनाव पूर्व तक इन सभी को शांति धारण किये रहने की मजबूरी होगी. इस बात से ये परिवार भली-भांति परिचित है कि प्रधानमंत्री पद के लिए तो इनमें से किसी की दाल नहीं गलनी है, ऐसे में ये राज्यों के चुनावों में अपना प्रभाव जमाकर वहाँ सत्ता सुख पाने के प्रयास में रहेंगे. इसके साथ-साथ यदि ये परिवार राज्यसभा के गैर-भाजपाई, गैर-कांग्रेसी दलों को एकजुट करने में सफल हो गए तो संभव है कि वहाँ से स्वार्थपरक राजनीति का नया खेल खेल सकते हैं. ये स्पष्ट है कि इनका विलय स्वार्थसिद्धि हेतु सामने आया है ऐसे में देशहित की कीमत पर ये परिवार कुछ भी कर सकता है, बशर्ते उसके एवज में इनको कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में सत्ता-सुख हासिल हो रहा हो. आइये देखते हैं कि इस परिवार की एकता कितने दिन तक निर्विवाद रूप से बनी रहती है.

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