03 मार्च 2015

त्यौहार वही बस किरदार बदले हैं


त्यौहार आने का सुखद एहसास हमेशा से रहा है. त्यौहार ही हैं जो हमें तनावों से, दुखों से, परेशानियों से दूर रहने में, रखने में सहायक सिद्ध होते हैं. कई बार मन महसूस करता है कि ये त्यौहार न होते तो शायद इन्सान भावनात्मक रूप से एक-दूसरे से न जुड़ा होता. इन्हीं के चलते रिश्तों में आपसी समन्वय, सौहार्द्र, भाईचारा स्थापित होता है और मेल-मिलाप की प्रक्रिया चलती रहती है. ये पर्व-त्यौहार न केवल पारिवारिक संबंधों को वरन सामाजिक संबंधों को भी प्रगाढ़ करते हैं. हमें आज भी त्योहारों का, विभिन्न पर्वों का महज इस कारण से इंतज़ार रहता है क्योंकि इसी बहाने परिवार के सभी छोटे-बड़े सदस्य एकसाथ मिल-बैठ लेते हैं, एकसाथ मिलजुल कर प्रेम, स्नेह में वृद्धि कर लेते हैं. जब हम छोटे थे तो सभी चाचा लोगों का सपरिवार अनिवार्य रूप से होली और दीपावली पर घर आना हुआ करता था. अम्मा द्वारा सामान की सूची बनाया जाना, पिताजी का सामान लाना, त्यौहार पर हम सभी भाई-बहिनों का मस्ती भरा हुल्लड़ त्यौहार के साथ-साथ चलता रहता.
.
दीपावली हो या फिर होली, सभी में भारतीय परम्परा में घरों पर व्यंजन, पकवान बनाये जाने की प्रकृति है वो अपने आपमें अनुपम है. होली पर अम्मा-चाचियों का मिलजुल कर गुझिया, पपड़ियाँ, मठरी, शकरपारे, चिप्स, पापड़ आदि का बनाया जाना पारिवारिक समरसता की मजबूती की कहानी लिखता था. उनके साथ में हम बच्चों का अपने उत्साह में गुझिया भरने में, चिप्स काटने में, मठरी बनाने में लग जाना आज भी गुदगुदाता है. जरा-जरा से काम से लेकर बड़े-बड़े काम के लिए बच्चों का आपस में होड़ लगा लेना, न सिर्फ परिवार के बच्चों का साथ आना वरन मोहल्ले भर के बच्चों का उत्साह से जुटा रहना अब कल्पना लगता है. इधर समाज बदलता रहा, समय भी बदलता रहा तो पर्व, त्यौहार का चलन भी बदलता रहा. इस बदलाव के दौर में भी यदि नहीं बदला तो त्योहारों पर घर में इकट्ठे होने का माहौल नहीं बदला, मानसिकता समाज की भले ही परिवर्तित हुई हो मगर हम लोगों का त्यौहार मिलजुल कर मनाने की मानसिकता में परिवर्तन नहीं आया.
.
हाँ, परिवार के स्तर पर कालखंड के अनुसार कुछ परिवर्तन अवश्य ही हुए हैं और इन परिवर्तनों को सकारात्मक ही कहा जायेगा. अब भी हम सभी एकजुट होते हैं, आज भी त्योहारों पर, पर्वों पर सभी का आना होता है. आज भी सामानों की सूची बनती है, सामान लाया जाता है, छोटे भाई-बहुएँ-बच्चे आते हैं, वैसा हंगामा होता है, हुल्लड़ होता है, पकवानों का बनाया जाना होता है, बच्चों की मस्ती होती है, बस पात्र बदल गए हैं. इन बदले हुए पात्रों में अब उस समय के सञ्चालनकर्ता आज बुजुर्गों की श्रेणी में मार्गदर्शक बने हैं और परिवार सञ्चालन के किरदार में वे लोग हैं जो किसी दौर में बच्चे हुआ करते थे. बच्चों के किरदार में अब वे लोग हैं जो भावी पर्वों, त्योहारों के कर्ता-धर्ता होंगे. जिस भूमिका में कभी अम्मा-पिताजी, चाचा-चाची थे, आज हम लोग हैं. जिस भूमिका में कभी हम भाई-बहिन रहते थे, आज हमारे बच्चे हैं. समय का यही चक्र जीवन को गति देता है, उसमें नीरसता आने नहीं देता है. पीछे मुड़कर देखते हैं तो एहसास होता है कि वाकई समय बहुत कुछ दिखाता है, बहुत कुछ सिखाता है.

.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें