25 अगस्त 2014

प्यार को प्यार ही रहने दो, खेल न बनाओ



प्यार के नाम पर कुर्बान होने वालों की संख्या लगातार समाज में बढ़ती जा रही है. इसी के साथ ऐसी बच्चियों की भी संख्या बढ़ती जा रही है जो प्यार के स्वप्नजाल में फँसकर दुराचार, गैंगरेप, शारीरिक अत्याचार, मौत आदि का शिकार बनती हैं. इस तरह की बच्चियों में ज्यादातर किशोरवय की बच्चियाँ हैं, जो विद्यालयीन शिक्षा ग्रहण कर रही हैं अथवा महाविद्यालयीन शिक्षा के आरंभिक चरण में हैं. यही वह आयु होती है जब प्रेम, प्यार, मोहब्बत जैसी शब्दावली बहुत मोहक लगती है. जवानी का जोश, दैहिक विकास की उमंग, विपरीतलिंगी के प्रति आकर्षण, उससे मेल-मिलाप, दोस्ती बढ़ाने की उत्कंठा इसी वय में अत्यंत तीव्रता के साथ उठती है. यदि इस वय के लड़के-लड़कियों की मानसिकता का अध्ययन किया जाये तो स्पष्ट रूप से ज्ञात होगा कि इनके में में इस समय विपरीत-लिंगी साथियों के प्रति एक अजब सा आकर्षण का भाव होता है. यही वो उम्र होती है जिस समय माता-पिता, परिवारीजनों, अध्यापकों द्वारा किसी भी तरह की टोका-टाकी इनको बर्दाश्त नहीं होती है. किसी भी तरह का अनुशासनात्मक रवैया इनको अंकुश की तरह लगता है, इनकी आज़ादी को प्रतिबंधित करने जैसा लगता है. इस विचारधारा को आधुनिकता में रची-बसी मानसिकता ने और पुष्ट किया है.
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फिल्मों. टीवी धारावाहिकों में प्रेम करना एकमात्र कार्य दिखाया जा रहा है. कहानी भले ही किसी शैक्षिक संस्था से आरम्भ हो, भले ही किसी परिवार या अन्य जगह से शुरू हो पर जल्द ही वह प्यार करने, होने के आसपास घूमने लगती है. प्यार के नाम को इस तरह दिमाग में प्रत्यारोपित किया जा रहा है कि ‘राजी राजी नहीं तो गैर-राजी’ की अवधारणा पर प्रेम करना-होना दिखाया जा रहा है. प्रेम का किशोरवय अथवा युवाओं से सम्बंधित स्वरूप ही सामने नहीं रखा जा रहा है वरन विवाहेतर संबंधों को, जबरन प्रेम सम्बन्ध स्वीकार करवाए जाने को भी स्थापित सा किया जा रहा है. इस तरह की प्रकृति समाज में भी देखने को मिल रही है और इसी का दुष्परिणाम है कि आये दिन बच्चियाँ तेजाबी हमले का शिकार हो रही हैं, कहीं किसी लड़की पर कातिलाना हमला किया जा रहा है, कहीं किसी बच्ची के साथ बलात्कार किया जा रहा है तो कहीं किसी विवाहित महिला को जबरन प्रेम सम्बन्ध स्वीकारने को मजबूर किया जा रहा है. ये घटनाएँ दर्शाती हैं कि समाज में प्रेम के नाम पर एक प्रकार की विकृति फैलती जा रही है. दरअसल जिस तरह से प्रेम को, प्यार को विपरीतलिंगियों के मध्य अनिवार्य सम्बन्ध की तरह स्थापित किया जा रहा है उससे इस विकृति को बल मिला है. टीनएजर्स कहे जाने वालों में यदि किसी का विपरीतलिंगी साथी नहीं है तो उसे गंवार समझा जाता है; अत्याधुनिक समाज के चाल-चलन के अनुसार गर्लफ्रेंड, बॉयफ्रेंड जैसी अवधारणा अनिवार्य सी समझी जाने लगी है. ‘माता-पिता के अपने बच्चों के साथ दोस्ताना सम्बन्ध होने चाहिए’ के चलते दोस्ती इस हद तक जा पहुँची है कि अब माता-पिता खुद अपने बच्चों से उनके विपरीतलिंगी साथी का नाम जानने को उत्सुक रहते हैं. आधुनिक बनने के इन क़दमों ने इन बच्चों को ही संकट में डाला है. बच्चियाँ आपराधिक प्रवृतियों के चंगुल में फँस जा रही हैं; कुत्सित मानसिकता के लड़कों के बहकावे में आकर या तो गर्भवती हो जा रही हैं या फिर गैंग रेप का शिकार बन रही हैं; बहला-फुसला उनको देह-व्यापार के दलदल में भी धकेला जा रहा है; प्रेम के नाम पर असफलता हाथ लगने वाले सिरफिरों के हमलों का शिकार बन रही हैं; कुछ आत्महत्या जैसे क़दमों तक को उठाने की हिमाकत कर जा रही हैं. लड़के भी कहीं न कहीं इस प्रेम-प्यार के चक्कर में
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ये जिम्मेवारी हम सभी की है कि हम अपने किशोरवय के बेटे-बेटियों को प्यार की गंभीरता समझाएं. हमें ही उन्हें इस बेतुके दर्शन से दूर रखना होगा कि ‘उस व्यक्ति से कैसे विवाह किया जाये, जिसे जानते नहीं.’ हमें ही उनको इसका भान करवाना होगा कि जिसे वे प्यार समझ रहे हैं वो सिवाय शारीरिक आकर्षण के और कुछ नहीं. हमें उनके साथ दोस्ताना व्यवहार भले ही करना हो मगर उनको समझाना ही पड़ेगा कि उनके माता-पिता ने उनसे ज्यादा अनुभव और जिंदगी को देखा है. उनको उनके कैरियर और प्यार के बीच की बारीक रेखा को समझाने की जरूरत है. उनको ये भी बताने की आवश्यकता है कि दुनिया जैसी दिखती है वैसी होती नहीं है. आखिर रोज ही किसी न किसी बच्ची के साथ प्यार के नाम पर शारीरिक शोषण का खेल क्यों खेला जा रहा है? इसके लिए जितने जिम्मेवार आपराधिक प्रवृत्ति के लोग हैं उससे कहीं ज्यादा इन बच्चियों के अभिभावक हैं क्योंकि उन्होंने ही अपने बच्चों के साथ मिलजुल कर बैठने, खेलने की कोशिश नहीं की. अब भी समय है, अपने बच्चों को हताशा, निराशा, अवसाद, अपराध आदि की काली-अँधेरी दुनिया में प्रविष्ट होने से रोकने के लिए. जागो आज ही, वर्ना कल तक तो बहुत देर हो जाएगी. 
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