15 मई 2014

सर्वाधिक समयावधि और सर्वाधिक अमर्यादित लोकसभा चुनाव




सामाजिक ताने-बाने में लिपटा इन्सान सार्वजनिक मंच से सामाजिकता की, रिश्तों के आदर-सम्मान की बात करता नज़र आता है किन्तु जैसे ही उसे अवसर मिलता है वो इन सबको भुला कर असामाजिकता दर्शाने लगता है, रिश्तों को विकृत रूप में प्रस्तुत करने लगता है. सामाजिक जीवन में हम लगातार, बार-बार ऐसा होते देख रहे हैं किन्तु वर्तमान लोकसभा चुनाव में बहुतायत में असंस्कृत भाषा-शैली, अमर्यादित टिप्पणी, असामाजिक कृत्य देखने को मिले. भारतीय लोकतंत्र का सबसे लम्बी समयावधि का चुनाव होने के साथ-साथ कदाचित सबसे ज्यादा असंस्कारित-अमर्यादित चुनाव भी रहा. समूचे चुनावी परिदृश्य पर नज़र डाली जाए तो स्पष्ट रूप से दिखता है कि समस्त भाजपा-विरोधी दलों के निशाने पर नरेन्द्र मोदी ही रहे. भाजपा द्वारा जैसे ही नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया वैसे ही उनके विरोधियों के हमले तेज़ हो गए. समूचे चुनावी वातावरण को सांप्रदायिक रंग देने का प्रयास किया जाने लगा. ऐसा लगने लगा और समझाया जाने लगा कि मोदी मात्र के आने से देश भर के मुसलमानों पर घोर संकट आ जायेगा. मोदी की आड़ में गैर-भाजपाई दलों द्वारा तुष्टिकरण की राजनीति करनी शुरू की गई.
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मोदी के नाम की घोषणा को पहले तो विरोधियों द्वारा बहुत तवज्जो नहीं दी गई और समूचे घटनाक्रम को सोशल मीडिया का प्रचार घोषित करके नरेन्द्र मोदी को सोशल मीडिया का प्रधानमंत्री, भाजपा का अगला पीएम इन वेटिंग बताया जाने लगा. जैसे-जैसे मोदी की रैलियों में भीड़ बढती रही, मोदी द्वारा एक-एक करके विरोधियों की नकाब उतारी जाती रही वैसे-वैसे विरोधियों की जुबान से संस्कार, मर्यादा गायब होती रही. अनेक असंवैधानिक शब्दों से, अमर्यादित शब्दों से, आपत्तिजनक बयानों से मोदी को संबोधित किया जाने लगा. लगा जैसे लोकतान्त्रिक मर्यादा तार-तार होकर बिखर रही है और किसी दिन नग्न स्वरूप में हमारे सामने आ जाएगी. बयानों, शब्दों के तीरों के जवाब में भाजपाई राजनीतिज्ञ भी इस बात को भुला बैठे कि जिन बयानों, शब्दों को वे अमर्यादित, असंस्कारित बता रहे हैं उसी तरह के जुमलों, बयानों, शब्दों का वे भी प्रयोग करने लगे हैं. भाजपा का मोदी के नाम का अति-उत्साह और भाजपा-विरोधियों की हताशा एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करने तक ले गई और इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि दोनों तरफ से अमर्यादित शब्दावली भारतीय लोकतंत्र में तैरने लगी.
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इस पूरी असामाजिक प्रक्रिया में न केवल राजनेता बल्कि सोशल मीडिया में सक्रिय उनके समर्थक घनघोर रूप से सक्रिय रहे. जिस सोशल मीडिया को जागरूकता लाने की, जानकारी देने की तरफ बढ़ता हुआ माना जा रहा था वह भी इस चुनाव में निम्न स्तर की भाषा-शैली, सामग्री, कार्टून आदि पेश करता दिखा. एक व्यक्ति के नाम पर चली राजनैतिक नकारात्मकता की इस स्थिति ने मर्यादाओं को, संस्कारों को, रिश्तों को, संबंधों को, भाईचारे को, दोस्ती आदि को ताक पर रख दिया. ये समूची स्थिति सोचने को विवश करती है कि गाली-गलौज, मारपीट, अमर्यादित भाषा-शैली, अपमानजनक रवैया, कटुतापूर्ण टिप्पणी करना कहीं हमारे अचेतन मन में स्थायी रूप से बसा तो नहीं रहता, जो अवसर आते ही जहरीले स्वरूप में सामने आ जाता है; इसके लिए उसे सिर्फ मौका चाहिए होता है जो उसे किसी भी रूप में मिले?
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