04 अगस्त 2013

एक दोस्ती बुजर्गों के नाम भी



वैश्विक समुदाय के साथ कदमताल करने के प्रयास में या कहें कि जद्दोजहद में हम भारतीय भी पूरे जीजान से जुटे हुए हैं. पश्चिमी सभ्यता के सुर-लय को पकड़ने की कोशिशों में हमने पहनावा, रहन-सहन, शालीनता, संस्कृति, भाषा, रिश्तों, मर्यादा आदि तक को दरकिनार करने से परहेज नहीं किया है. करना भी नहीं चाहिए, आखिर वैश्विक समुदाय के साथ कदमताल इन सबको साथ लेकर कैसे हो सकती है. बहरहाल, विविध ‘डे’स’ के मस्ती भरे आयोजनों के बीच पश्चिम से टहलता हुआ ‘फ्रेंडशिप डे’ आकर सामने खड़ा हो गया. अब हम भारतीय तो सदा से अतिथि देवो भवः वाली संस्कृति का अनुपालन करते रहे हैं तो इसकी आवभगत में कैसे न जुटते. पूरी गर्मजोशी से हमने हाथों में पट्टा बाँध, गलबहियाँ करते हुए, बाइक को फर्राटा बनाकर, कुछ तरल पदार्थ गले के नीचे उतार इस विशेष डे को और भी विशेष बना दिया. आपस में चहकते, मटकते, तेज़-तेज़ आवाज़ में अजीब-अजीब सी ध्वनियाँ निकालते, बेतरतीब वस्त्रों के साथ खुद को आधुनिक सा सजाते हुए विपरीतलिंगियों में दोस्ती, दोस्ती में प्यार और प्यार में भी प्यार से आगे का बहुत कुछ खोजते तमाम झुण्ड आयोजन की सफलता की कहानी लिखने में लगे होंगे. इसी सफल-असफल सी कहानी के साये में बहुत कुछ बिखरता सा दिखता है, बहुत कुछ छीजता सा दिखता है.
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विदेशी आयोजनों की भव्यता के बीच हमारे परिवार की दिव्यता कहीं बिखरती सी दिखती है. युवाओं की जोशपूर्ण मस्ती के बीच परिवार के, समाज के बुजुर्गों की हस्ती सिमटती सी लगती है. निर्द्वन्द्व, स्वच्छंद भटकते झुण्ड के बीच बुजुर्गों का एकाकीपन पिसता सा लगता है. ये आयोजन भले ही एक दिन का हो पर आज की पीढ़ी अपना हर दिन, हर पल सिर्फ और सिर्फ मौज में जीना चाहती है. मस्ती में सराबोर होने के तरीके खोजती हुई अपने आपको सिर्फ और सिर्फ अपने में केन्द्रित कर लेना चाहती है. उसके लिए अपने अस्तित्व और अपनी दोस्ती के अलावा कुछ और मायने नहीं रखता है. ये और बात है कि आज के तीव्रगति से भागते समय में अधिकांश दोस्ती भरे रिश्ते कब बनते हैं और कब बिखर जाते हैं, ये खुद इन दोस्तों को ही पता नहीं चलता. ऐसे भटकन भरे दौर में कम से कम कुछ समय हमारे युवा अपने उन बुजुर्गों के लिए भी निकालें जो उनके साथ रहते हुए भी, उनके आसपास रहते हुए भी एकाकी जीवन गुजार रहे हैं. दोस्ती के मायने सिर्फ गुलछर्रे उड़ाना, पार्टियाँ करना, सडकों पर हुल्लड़ काटना, देह की परिभाषा तय करना ही नहीं है बल्कि एक एहसास को जन्म देना है, एक विश्वास को स्थापित करना है.
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एहसास और विश्वास की मर्यादा-पावनता को हम अपने परिवार के बुजुर्गों के बीच भी बाँटने का प्रयास करें. दोस्ती के नाम पर भले ही हमारी युवा पीढ़ी उनके साथ बाइक के स्टंट न कर सके, बीयर-वाइन के जाम न छलका सके, गलबहियाँ करते हुए मॉल-पब, डिस्कोथिक में मस्ती न कर सके पर ये सत्य है कि उन बुजुर्गों को ख़ुशी का बहुत बड़ा तोहफा दे सकती है. आधुनिकता के दौर में चाहे कुछ कितना भी बदल गया हो पर हमें विश्वास को नहीं बदलने देना है, एहसास को नहीं बदलने देना है, रिश्तों को नहीं बदलने देना है, मर्यादा को नहीं बदलने देना है, संस्कृति को नहीं बदलने देना है. दोस्ती के नाम पर मस्ती में चूर आज की पीढ़ी को इसका आभास कराये जाने की जरूरत है कि बुजुर्ग उनके लिए बोझ नहीं, उनकी रफ़्तार में अवरोध नहीं, उनकी मस्ती की बोरियत नहीं हैं. अपनी संस्कृति-सभ्यता से विरत हो रहे, परिवार को बंधन समझ रहे, ज़िम्मेवारियों से मुक्ति चाह रहे युवा वर्ग को समझाना ही होगा कि बुजुर्ग हमारा एहसास हैं, हमारा विश्वास हैं, हमारी संस्कृति हैं, हमारा परिवार हैं, हमारा अस्तित्व हैं. आइये कम से कम दोस्ती के नाम का एक दिन तो इनके नाम कर ही दें, बाकी दिन तो अपने हमउम्र दोस्तों के साथ मौज-मस्ती, सैर-सपाटा, गलबहियाँ करते हुए बिताना ही है.

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