15 मार्च 2013

अनुमति से सेक्स आयु कम करने की वास्तविकता



पिछले कुछ दिनों से देश भर की मीडिया सहमति के आधार शारीरिक सम्बन्ध बनाये जाने की आयु को 16 वर्ष किये जाने की ख़बरें बड़ी मुस्तैदी से प्रसारित कर रहा है. मीडिया के सभी अंग पूरी तन्मयता से ये दिखाने में लगे रहे (अभी भी लगे हैं) कि मंत्रियों का समूह इस उम्र को 18 वर्ष से 16 वर्ष करने पर सहमत हो गया है. मीडिया द्वारा इस पर देशव्यापी बहस सी छेड़ दी गई है. मीडिया के साथ-साथ सोशल मीडिया पर सक्रिय लोग भी इस प्रस्ताव पर सहमति-असहमति व्यक्त करते देखे जा रहे हैं. इस पूरे घटनाक्रम पर वो मंत्री समूह भी अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहा है जिसके निर्णय से इस संशोधन सम्बन्धी प्रस्ताव को पारित होना है. किसी भी अन्य विषय पर, मुद्दे पर  मीडिया और सोशल मीडिया की गहमागहमी के मध्य तमाम सारे राजनैतिक व्यक्ति अपनी-अपनी राय प्रकट करने को स्वयं प्रकट होते रहे हैं पर इस मामले में एक तरह की शून्यता सी दिखी.

मीडिया, सोशल मीडिया की गहमागहमी तथा राजनेताओं की चुप्पी के बीच खबर बुरी तरह से प्रसारित की गई कि उम्र घटाने सम्बन्धी प्रस्ताव पर मंत्री समूह की सहमति बनने के बाद इसे सदन में पारित कर दिया गया है, अब इसे राज्यसभा में पेश किया जायेगा. इस आलेख के लेखक ने स्वयं भी इस मुद्दे पर सोशल मीडिया में अपनी त्वरित प्रतिक्रियाएं व्यक्त की किन्तु किसी तरह की तथ्यात्मकता पास न होने के कारण खुलकर कुछ लिखा नहीं जा सका. इस तथ्यात्मक कमी को दूर करने के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता श्री दिनेशराय द्विवेदी जी का सहयोग लिया गया. उनसे इस विषय की वास्तविकता पर प्रकाश डालने का निवेदन किया गया. सोशल मीडिया में कानूनी विषयों की बहुत सारगर्भित और सरल भाषा में जानकारी देने वाले श्री दिनेशराय जी ने संक्षिप्त रूप में इस विषय पर सारगर्भित जानकारी दी. उनके द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए उम्र को एक अध्यादेश के द्वारा 18 वर्ष किया गया था. पिछले महीने 3 फरवरी को जारी पराधिक विधि संशोधन ऑर्डीनेंस में इसे 18 वर्ष किया गया था जो एक अच्छा कदम था लेकिन यह ऑर्डिनेंस कानून बनने तक की अवधि के लिए लाया गया था। अब जब उसे कानून बनाने के लिए संसद में प्रस्तुत किया जाएगा तो कदम यह कह कर पीछे लिया जा रहा है कि जस्टिस वर्मा की रिपोर्ट में बारे में कोई सिफारिश नहीं की थी।  उन्होंने आगे बताया “यह उम्र केवल बलात्कार के संबंध में है। यदि 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ ऐसा हुआ हो तो यह प्रतिरक्षा नहीं ली जा सकती है कि यौन संबंध सहमति से था। सहमति होने पर भी उसे बलात्कार ही कहा जाएगा। लेकिन यदि स्त्री 16 या उस से अधिक की हो और सहमति प्रमाणित हो जाए तो वह यौन संबंध बलात्कार नहीं होगा। अभी तक यह उम्र 16 वर्ष ही है। जस्टिस वर्मा ने अपनी रिपोर्ट में यह तो नहीं कहा कि इसे बढ़ाना चाहिए लेकिन उन्हों ने विधि आयोग की 84वीं रिपोर्ट का जिक्र किया है जिसमें इसे 18 वर्ष करने का सुझाव है। रिपोर्ट का अंश इस तरह है- The 84th Report further recommended that the minimum age should be increased to 18 years and observed as follows: “2.20. Increase in minimum age. The question to be considered is whether the age should be increased to 18 years. The minimum age of marriage now laid down by law (after 1978) is 18 years in the case of females and the relevant clause of S. 375 should reflect this changed attitude. Since marriage with a girl below 18 years is prohibited (though it is not void as a matter of personal law), sexual intercourse with a girl below 18 years should also be prohibited.
इसका अर्थ यह था कि विधि आयोग की सिफारिश को लागू कर दिया जाना चाहिए था पर सरकार ने नहीं किया। मंत्री समूह ने इस सिफारिश को अब भी नहीं माना और उसे 16 वर्ष ही रखने का निर्णय किया है। अब मंत्रीमंडल इस पर विचार करेगा। इसे ऐसा प्रचारित किया जा रहा है जैसे पहले यह उम्र 18 रही हो और अब 16 किया जा रहा हो। बहस इस बात पर होनी चाहिए कि क्या 16 को 18 कर दिया जाए। मुझे तो लगता है कि सरकार भी चाहती है कि इसे 18 कर दिया जाए पर उस से बवाल हो जाएगा। तब 16 से 18 की उम्र में लड़की के साथ संभोग के जो मामले अब तक सहमति के आधार पर बलात्कार नहीं थे वे भी बलात्कार की श्रेणी में आ जाएंगे।”

वरिष्ठ अधिवक्ता के उक्त विचारों को जानकार लगा कि विवाह की न्यूनतम उम्र और यौन संसर्ग हेतु अनुमति देने की क्षमता की उम्र एक ही होनी चाहिए. सहमति से शारीरिक सम्बन्ध बनाये जाने की आयु 16 वर्ष हो जाने पर 16 से 18 वर्ष की उम्र के बीच यदि कोई बलात्कार हुआ तो उस में अभियु्क्त के पास सहमति का बचाव उपलब्ध रहेगा. यह उम्र 18 वर्ष हो जाने पर इस से कम उम्र की स्त्री के साथ प्रत्येक यौन संसर्ग बलात्कार की श्रेणी में आ जाएगा. इस वास्तविकता के ठीक उलट मीडिया किस तरह से भ्रामक प्रचार-प्रसार कर रही है और उसके द्वारा प्रसारित-प्रचारित इस विषय पर हम सब आँखें बंद किये मीडिया के बनाये रास्ते पर कदमताल करने में व्यस्त हैं. दरअसल अध्यादेश एक तरह से अस्थाई कानून होता है जिसे विधायिका की सहमति नहीं होती, जो या तो समान विधेयक पारित होने के साथ स्थाई विधेयक में बदल जाता है या फिर वह समाप्त हो जाता है. आंदोलन के दबाव में सरकार द्वारा बिना विचारे जल्दबाजी में यह अध्यादेश लाया गया था. अब एक माह में ही उस से पीछे हटा जा रहा है. यही कारण है कि सारा मीडिया इसे आयु को कम करना कह रहा है. देखा जाए तो ये एक तरह का कानूनी मसला है और मीडिया को जनसामान्य के मध्य ऐसे विषयों को पहुँचाने में पूरी सतर्कता बरतनी चाहिए. उसे समझना चाहिए कि इस तरह के विषयों से समाज में सही और सार्थक विषय पर भी गलत और भ्रामक स्थिति पैदा होने लगती है. भले ही इस विषय पर भ्रम की स्थिति में सामाजिकता को कोई खतरा उत्पन्न न हो किन्तु तमाम सारे ऐसे विषय होते हैं जिन पर जरा सी विभ्रम की स्थिति में सामाजिक समस्या उत्पन्न हो जाती है. मीडिया तो खैर अपना व्यवसाय करते हुए लोगों की भावनाओं से खेलने का काम करता रहा है सो उसने ऐसा ही किया किन्तु जनप्रतिनिधि बने होने का दावा करने वाले भी ऐसे महत्वपूर्ण विषय पर ख़ामोशी बनाये रहे. यहाँ विचार करना चाहिए कि ये प्रस्ताव किसी विदेशनीति, कूटनीति, राजनयिक अथवा संसद के अंदरूनी मसलों के लिए प्रस्तुत नहीं किया जा रहा था कि जिससे जनसामान्य का सीधे-सीधे कोई लेना-देना नहीं. इस प्रस्ताव को जनसामान्य के लिए प्रस्तुत किया जा रहा था जिसका सीधा असर समाज पर पड़ने जा रहा है ऐसे में मीडिया के साथ-साथ मंत्री समूह की भी जिम्मेवारी बनती थी कि वो जनसामान्य के बीच इसके कानूनी पक्ष को सहजता-सरलता से स्पष्ट करता किन्तु मंत्री समूह पूरी तरह से इस मसले पर बैकफुट पर दिख रहा है. इससे सरकार की हुज्जत ही हो रही है. इस कारण अब उसके द्वारा कुछ मामलों में एक माह पूर्व की स्थिति स्थापित करने का प्रयत्न किया जा रहा है. उसके पीछे भी सरकार की एक ही मंशा है कि पुलिस, अभियोजन व अदालतों पर वजन न बढ़े. यह एक तरह से पूरे सिस्टम की नाकामयाबी है जो पर्याप्त न्याय व्यवस्था बनाने की तरफ कदम बढ़ा नहीं सकता क्योंकि उस पर सरकारी खर्च कम करने का अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं का भारी दबाव है.

फिलहाल वर्तमान आधुनिकता, व्यावसायिकता, वैश्वीकरण, पूंजीवाद, बाजारवाद के दौर में न तो मीडिया के पास फुर्सत है कि वो किसी भी जनसामान्य से जुड़े विषय पर चिंतन करके अपनी राय प्रस्तुत करे. जनप्रतिनिधियों, राजनैतिक दलों के पास भी जनता के लिए इतना समय नहीं कि वे उसे विषय की स्पष्टता से अवगत करा सकें. इस सबके बीच खुद जनसामान्य के पास भी इतना धैर्य नहीं कि किसी भी विषय पर अपनी राय को सहमति-असहमति के पलड़े में रखने से पहले उस विषय की, मामले की वास्तविकता को जांच-परख लें. अधीरता के इस दौर में सबकुछ जल्दी-जल्दी निपटा कर ‘सबसे पहले मैंने ऐसा किया’ का ख़िताब हासिल किया जाना ही प्रमुख लगता है. वैसे नया विधेयक पूरी तरह सामने आने पर ही उस की विवेचना करना उचित है.

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इस आलेख को पूरा करने में वरिष्ठ अधिवक्ता श्री दिनेशराय द्विवेदी जी का सहयोग लिया गया, उनका कोटि-कोटि आभार.

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (16-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. बढ़िया आलेख ... आभार !

    आज की ब्लॉग बुलेटिन आम आदमी का अंतिम भोज - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. सच से रूबरू करता एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेख ..चिंतन योग्य सादर बधाई के साथ

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