12 मार्च 2013

पुलिसिया आतंक का प्रेम



सड़क किनारे खाकी वर्दी में सजे खड़े अधिकारी, सिपाही. अधिकारी के कंधे पर चमकते सितारे और हाथ में एक हॉकी. साथ में खड़े सिपाही कंधे पर स्टार तो नहीं सजाये हैं, हाँ एक बन्दूक टाँगे हैं....सिर्फ टाँगे ही हैं और अपने हाथ में एक नुकीला सूजा गर्वित भाव से लहराने में लगे हैं. इन महानुभावों का खड़ा होना ही सड़क पर चलती-फिरती जनता के मन में भय का सृजन करती है. बीच-बीच में कभी अधिकारी साहब तो कभी उनके मातहत सिपाही मुखारविंद से रिश्तों-नातों का जाप करते दिख जाते हैं. पुलिसिया शालीनता के साथ अशालीन शब्दों का संयोजन लोगों को डराता है..धमकाता है. मौखिक, शाब्दिक प्रक्रिया के साथ-साथ इन लोगों के हाथों में सुशोभित लघु अस्त्र भी बीच-बीच में सक्रियता का भान करा देते हैं. बड़े साहब के हाथ में शोभायमान हो रही हॉकी लोगों की पीठ पर, टांगों पर चिपकने की कोशिश करती हुई सफलता प्राप्त कर लेती है. ‘बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां सुभानल्लाह’ वाली बात को चरितार्थ करते बड़े साहब के अधीनस्थ ‘बहुत बड़े वाले’ साहब, जो अपने हाथ में नुकीला सूजा लिए लोगों के रोंगटे खड़े करने का काम कर रहे हैं, उसी सूजे को गाड़ियों के, स्कूटर-बाइक के, साइकिल-रिक्शा के, हाथ ठेला के पहियों में प्रवेश दिलाने में महारत हासिल किये होते हैं. मौका ताड़ के बिना किसी विशेष प्रयास के वे तमाम गाड़ियों के पहियों और सूजे का मिलन करवा देते हैं. इसके अलावा जब बड़े साहब अपनी नीली बत्ती लगी और हों-हों की आवाज़ में चिल्लाती जीप में बैठ कर शहर की सड़कों में भ्रमण कर रहे होते हैं तो अपनी परमप्रिय हॉकी के सहारे सड़क के किनारे कड़ी बेतरतीब बाइक, स्कूटर, साइकिलों को सड़क की धूल चटाते जाते हैं.
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          ये दृश्य पता नहीं कितने नगरों की शोभा, दिव्यता बढ़ाते हैं पर हमारे दिव्य शहर उरई में आये दिन दिखाई देते हैं. पीठ, पैर अथवा शरीर के किसी भी अंग पर सवारी कर चुकी हॉकी जब वापस बड़े साहब के पास आती है तो सामने वाले को दोहरा करके आती है. आसपास वाले ‘चिपका ले सैंया फेविकोल से’ गाने की लाइन ‘उह्ह, आह की आवाज़ आती है जोर से’ ही बड़ी मद्धिम आवाज़ में सुनते हैं. उनका नगर-भ्रमण कितनी गाड़ियों की हालत को बदल देता है, कितनी ही गाड़ियों की लाइट को बदलवा देता है, कितनों को रगड़ के सहारे खरोच के निशान देता है, कहा नहीं जा सकता. कुछ यही स्थिति ‘बहुत बड़े वाले’ छोटे-छोटे साहबों की दिखती है. हाथ का सूजा किसकी हवा निकाल दे, पता नहीं. डर तो तब लगता है जब वो सूजा उनके हाथ में इधर-उधर डोलता है, समझ नहीं आता कि पहिये से मिलन करेगा या आदमी की देह से? सड़क के किनारे पल भर को किसी का रुकना हुआ नहीं और ये महाशय बस वहां खड़े भर हों, फिर क्या, रुकना भूलकर, काम करना भूलकर लोग देखने लगते हैं कि कहीं पहिया जमींदोज तो नहीं हो गया. एक बार इनके नुकीले सूजे ने पहिये का स्पर्श मात्र किया ही कि बस...पूरी कहानी ख़तम.
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          इसके अलावा एक और काम आजकल हमारे शहर के बड़े साहब, बहुत बड़े वाले साहब करने में लगे हैं और वो है सड़क पर गुजरते, कहीं एक साथ टहलते-बैठे जोड़ों की जांच-परख करने का. भले ही लड़का-लड़की आपत्तिजनक स्थिति में न हों, भले ही लड़की किसी लड़के की शिकायत न कर रही हो, भले ही लड़का कोई गलत हरकत न कर रहा हो....पर इन अतिजागरूक रक्षकों को अपना जांच-धर्म निभाना ही है. किसी भी चलती बाइक को रोक लेना, लड़के-लड़की को अपने रिश्ते का सबूत उपलब्ध करवाने को कहना, तमाम शालीन-अशालीन सवालों से दाग देना, थाना-कोतवाली का भय दिखाना इन साहेबान का परम दायित्व बन जाता है. इसके अलावा ये साहब आजकल महिला पुलिसकर्मी को भी हथियार के रूप में शहर में प्रयोग करते घूम रहे हैं. सादे कपड़ों में, बन-संवर कर ये आधुनिक ललनाएं कभी सीटी मारके, कभी अंखियों से गोली चला के, कभी शारीरिक भाव-भंगिमाओं के परिचालन से इधर-उधर डोलते लड़कों को पकड़वा कर कोतवाली की सैर करवा कर डंडे का स्पर्श करवा देती हैं. 
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भले ही खाकी वर्दी को अनुशासन बनाये रखने का, शांति व्यवस्था बनाये रखने का, कानून का अनुपालन करने का, आपराधिक तत्त्वों पर नियंत्रण का कार्य दिया गया हो किन्तु वह कानूनी ताकतों का बेजा इस्तेमाल कर रही है. साईकिल, बाइक, स्कूटर, रिक्शा, ठेले, पटरी व्यापारियों को हड़काना-धमकाना इनका नित्य का कार्य बन गया है. अपनी हनक दिखाते हुए कहीं भी अपनी गाड़ी को खड़ी करके सड़क पर जाम की स्थिति बना देना, अकारण लोगों पर हाथ साफ़ कर देना भी इनकी आदत में शुमार हो गया है. कोई व्यक्ति एक बार किसी भी छोटे से आरोप में बस चौकी, थाना अथवा कोतवाली की सैर कर आये उसके शरीर पर चार-छः जगह लाल-लाल निशान बने आसानी से देखे जा सकते हैं. ऐसे में जनाक्रोश धीरे-धीरे बढ़ता हुआ उग्रता की पराकाष्ठा तक पहुँच जाता है और यही स्थिति पुलिसिया आतंक के विरुद्ध हिन्सात्मक रूप में उभरकर आती है. खाकी वर्दी को सुधारने की और जनता के साथ उसके रिश्ते मधुर बनाये जाने की वकालत करते लोगों को पुलिस के आला अफसरों को उनके अधिकारीयों, सिपाहियों की इस तरह की अतिवादिता से बचने की सलाह देना चाहिए. कानून की ताकत उनको कानून का अनुपालन करने के लिए दी गई है न कि जनता की पीठ सेंकने के लिए. विडंबना ये है कि लाख समझाने के बाद इनकी समझ में आता नहीं है और इसी कारण से ये कभी राजनैतिक दलों के, व्यक्तियों के हाथों की कठपुतली बनते हैं, कभी राजनैतिक अपराधियों के शिकार बनते हैं तो कभी-कभी जनाक्रोश का शिकार होकर अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं. कानूनी ताकत का भय लोगों में रहे, वे अनुशासन से, शांति से रहें इसके लिए आवश्यक है कि कानून को सशक्त किया जाए न कि कानून का अनुपालन करवाने-करने वालों को.
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