16 फ़रवरी 2013

हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाने का बहाना चाहिए



          गुरुवार की रात से बारिश होने लगी, सरदी-गरमी की धूप-छांव के कारण मौसम कभी गर्म तो कभी सर्द हो जाता। बारिश के साथ चलती ठंडी हवाओं का चलना तथा शुक्रवार को वसंत पंचमी के अवकाश ने मौसम को और सुहाना बनाया। अपने मित्र सुभाष के साथ बाइक पर बैठकर निकल लिए सैर पर। शहर के पास से निकलता हाइवे और उसके आसपास खेतों में लहलहाती सरसों से मन प्रसन्न हो उठा। चूंकि पिछली रात इतनी बारिश नहीं हुई थी कि जिससे फसल को नुकसान पहुंचता किन्तु आशंका इस बात की थी कि यदि और बारिश हो गई तो अवश्य ही फसलों के लिए नुकसानदेह साबित होगी। इसके पीछे कारण ये भी था कि कुछ दिनों पहले की घनघोर बारिश और ओलावृष्टि ने फसलों को बहुत नुकसान पहुंचाया था।
.
          हम दोनों मित्रों ने इस पर व्यापक चर्चा की, जहां तक की सैर करना तय था वहां तक पहुंचकर किसानों पर, बारिश पर, मौसम पर, सामाजिक परिदृश्य पर चर्चा करके वापस घर आने को निकल पड़े। मौसम के सुहानेपन का दिलो-दिमाग पर असर हो रहा था, बारिश भी हल्की-हल्की शुरू हो गई थी। गरमागरम चाय के साथ गरमागरम पकौड़ी की तलब को हमारे एक और मित्र अनुज ने पूरा किया, जिनके घर हम दोनों ने वापसी में डेरा जमाया। वहां भी कई विषयों पर चर्चा की और भविष्य की अपनी कुछ योजनाओं को अमल में लाने सम्बन्धी रूपरेखा तय की।
.
          अपनी विविध विषयों पर चर्चा करने के दौरान बार-बार कृषि फसलों पर बारिश के प्रभाव, फसलों के नुकसान होने पर किसानों को होने वाले नुकसान पर अपनी संवेदना प्रकट की। अपनी-अपनी संवेदनाएं आपस में ही प्रकट करने के बाद, चाय-पकौड़ी-चटनी का, बाइक का, सुहाने मौसम में पीली-पीली सरसों, हरे-भरे खेतों का आनन्द उठाने के बाद घर लौट आये। इस पूरे प्रकरण के साथ कहीं न कहीं मन में एक टीस सी उठती रही। किसी के प्रति मात्र संवेदना व्यक्त करने के अलावा कुछ और न कर पाने की विवशता ने कहीं अंदर तक विचलित किया। मात्र बातों के बताशे फोड़ने के अतिरिक्त हम कुछ और भी न कर सके, न तो बारिश से तबाह होती फसलों को बचा सके और न ही इस नुकसान से प्रभावित होते किसानों की मदद कर सके।
.
          ऐसी स्थिति कोई इस बार ही सामने नहीं आई, कभी अतिवृष्टि, कभी ओलावृष्टि, कभी सूखा, कभी बाढ़, कभी कोई और आपदा आये दिन किसानों को, फसलों को, गरीबों को, असहायों को बुरी तरह से प्रभावित करके तोड़ देती है; दाने-दाने को, रोटी को मोहताज कर देती है। चन्द सामाजिक संस्थाओं की मदद से, चन्द जागरूक नागरिकों की मदद से उन्हें क्षणिक सहायता तो मिल जाती है पर किसी तरह का स्थायी समाधान किसी भी समस्या से नहीं मिलता है। प्रशासनिक अधिकारियों-राजनीतिज्ञों का रवैया अपने आपमें अनूठा ही रहता है। ये दोनों वर्ग अपने-अपने नियमों-कानूनों का हवाला देकर मदद के रास्तों पर चलने का प्रयास सा करते दिखते हैं। ऐसे में कुछ करने की चाह के बाद भी कुछ न कर पाने की विवशता मन को खिन्न कर देती है। क्या किया जाये...मन की खिन्नता तो दूर हुई नहीं वरन् पिछले दो दिनों से हो रही बारिश ने और भी बढ़ा दिया।  
.
जिनको किसानों के, असहायों के, परेशान लोगों के, दुखियों के दुखों को दूर करने का, समस्या का समाधान करने का, कष्ट को भगाने का जिम्मा दिया गया है; जो जनप्रतिनिधि बनकर जनता की आवाज उठाने का, जनता के कष्टों में उसके साथ खड़े होने का, उनकी समस्याओं को निपटाने का, शासन-प्रशासन को सचेत करने का बीड़ा उठाने का दम भरते हैं जब वे ही मात्र संवेदना व्यक्त करके चाय-पकौड़ी के स्वाद की ओर मुखातिब हो जाते हैं तो फिर हम मित्र तो विवश हैं। इस विवशता के बीच, अपनी सीमाओं के बीच यदि संवेदना प्रकट कर लेते हैं, एक-दो लोगों के कष्टों में उसके साथ खड़े हो जाते हैं तो कुछ किलोमीटर की बाइकिंग, मौसम के साथ हवाखोरी, गरमागरम चाय-पकौड़ी का आनन्द तो लेकर अपनी विवशत को दूर कर ही सकते हैं। अब क्या किया जाये...संवेदनाओं को आपस में बैठकर आज भी व्यक्त किया और फिर चाय-समोसे का स्वाद लेने में जुट गये। आज बारिश कम हुई होती या फिर न हुई होती तो निश्चय ही आज भी बाइक पर हवाखोरी का आनन्द लिया होता। क्या करें, कुछ इसी तरह से ही कष्टों को, परेशानियों को, समस्याओं को, फ़िक्र को धुंए में उड़ाने का बहाना ढूंड़ते हैं।
.

चित्र गूगल छवियों से साभार

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें