07 अगस्त 2012

छात्र-संघों की बहाली का निर्णय सुखद नहीं


ऐसा लग रहा है जैसे उ0प्र0 की वर्तमान सरकार का मुख्य कार्य माया सरकार के निर्णयों को बदलना ही है। अखिलेश ने मुख्यमंत्री बनने के बाद से अभी तक एक-दो नहीं, कई निर्णयों को बदल कर दिखा दिया है कि उनकी सरकार का मुख्य कार्य प्रदेश का विकास करना नहीं अपितु माया सरकार के निर्णयों को बदलना है। तमाम सारे बदले गये निर्णयों के क्या परिणाम होंगे यह तो वक्त ही बतायेगा किन्तु छात्र संघों की बहाली का निर्णय अभी से ही सुखद परिणाम नहीं दे रहा है। आगे भी बेहतर परिणाम मिलने की आशा न की जाये।

देश में, प्रदेश में राजनीति का कोई सुखद दौर रहा होगा जिस समय छात्र संघों के द्वारा छात्रों को राजनीति के प्रति प्रेरित किया जाता रहा होगा किन्तु वर्तमान में राजनीति जिस दौर से गुजर रही है, उस दौर में छात्र-शक्ति का दुरुपयोग ही किया जा रहा है। प्रत्येक राजनैतिक दल छात्रों के द्वारा स्वार्थसिद्धि का कार्य करती है और आवश्यकता पड़ने पर इन्हीं छात्रों के द्वारा शक्ति प्रदर्शन भी किये जाते हैं। देखा जाये तो किसी भी दल के द्वारा छात्रों को सकारात्मक राजनीति के प्रति सचेत करने का कार्य नहीं किया जाता है।

प्रदेश में अभी छात्र संघों के चुनावों को सितम्बर माह के पहले सप्ताह तक करवा लेने जैसे आदेश महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों को प्राप्त हुए हैं। ऐसे आदेश के आने के बाद से छात्रों की राजनैतिक सरगर्मी बढ़ गई है। छात्र सहायता केन्द्र के द्वारा विद्यार्थियों को लुभाने के साथ-साथ प्राचार्य, प्राध्यापकगणों को, लिपिकीय संवर्ग को धमकाने का कार्य भी भली-भांति प्रारम्भ हो चुका है। आवश्यक-अनावश्यक रूप से आये दिन महाविद्यालयों को बन्द करवाने की घटनायें, महाविद्यालयों में तोड़-फोड़ की घटनायें की जाने लगी हैं। छात्र राजनीति के नाम पर स्थापित राजनैतिक दलों के प्रमुख अपने-अपने गुर्गों को महाविद्यालय में प्रवेश दिलवाकर महाविद्यालयीन छात्रों को अपने हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का कार्य कर रहे हैं। महाविद्यालयीन छात्र संघों के प्रमुख पदों पर विजयी होने वाले छात्र बड़ी ही आसानी से इनके लिए भीड़ जुटाने का साधन बन जाते हैं। इसके अलावा यही छात्र-शक्ति किसी भी प्रकार के उपद्रव को अंजाम देने के लिए भी इन नेताओं के लिए मुफीद होती है।

विगत के वर्षों में एक-दो नहीं अनेक ऐसे उदाहरण सामने आये हैं जबकि छात्र राजनीति के नाम पर सिर्फ और सिर्फ हिंसा, उपद्रव को बढ़ावा ही मिला है। छात्र संघों के द्वारा महाविद्यालयों में शिक्षा का, अध्ययन-अध्यापन का स्तर भी शर्मनाक ढंग से गिरा है। प्राध्यापकों के प्रति भी आदरभाव भी इन छुटभैये नेताओं के प्रभावी होने के कारण कम होता दिखाई दिया है। प्रत्येक छात्र नेता के पीछे बड़े से बड़े नेता के अलावा छुटभैये टाइप नेताओं का भी हाथ बना रहता है। ऐसी स्थिति में जबकि अधिसंख्यक महाविद्यालयों में शैक्षिक वातावरण में चिन्तनीय गिरावट आ रही है, उनके सुधार के लिए तमाम सारे आयोग और अन्य साधनों की सहायता ली जा रही है, छात्र संघों की बहाली का निर्णय किसी भी स्थिति में सराहनीय नहीं लगता है। अब अखिलेश के इस निर्णय का परिणाम देखने को ही महाविद्यालय प्रशासन विवश है क्योंकि यह तो तय बात है कि अब छात्र राजनीति सुखद स्थिति उत्पन्न करने वाली नहीं है।

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चित्र गूगल छवियों से साभार



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