13 मार्च 2012

सोशल इंजीनियरिंग हुई हवा..छा गई सपा


विगत विधानसभा चुनावों में जिस तरह से सोशल इंजीनियरिंगकी स्थापना कर उसकी व्याख्या की गई थी उससे लग रहा था कि आने वाले कई वर्षों तक बसपा को प्रदेश की सत्ता से हटाने वाला कोई नहीं होगा। पूरे पाँच वर्ष बीतते न बीतते स्वार्थपूर्ति के लिए चाटुकारों द्वाारा बनाई गई शब्दावली सोशल इंजीनियरिंगका वास्तविक स्वरूप प्रदेश की जनता के सामने आ गया। विद्रूपता इस बात की है कि उस समय इस शब्द को ऐसे स्थापित किया जा रहा था जैसे मायावती द्वारा अथवा बसपा द्वारा कोई महान खोज कर ली गई हो।

सभी को स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था कि बसपा का अपना वोट-बैंक उतना ही है जो उसको सत्ता प्राप्ति के लिए पर्याप्त सीटों की व्यवस्था करवा देता है किन्तु पूर्णरूप से सत्ता प्राप्ति के लिए उसे कुछ और की भी दरकार रहती है। इसी दरकार के लिए बसपा द्वारा कभी भाजपा से, कभी ठाकुरों से तो कभी ब्राह्मणों से गठबंधन करना पड़ा। बार-बार किसी का मुँह ताकने से बेहतर स्वार्थ की राजनीति का खेल खेला गया और चाटुकार राजनीति विश्लेषकों द्वारा अकुलाहट में इस स्वार्थपरक राजनीति को सोशल इंजीनियंरिंगका खूबसूरत सा नाम देकर समाज के बीच स्थापित भी किया गया। न केवल स्थापित किया गया बल्कि कुछ विश्वविद्यालयों में तो इसे पाठ्यक्रम के रूप में अपनाया भी गया।

सोचा जा सकता था कि कुछ वर्षों पूर्व तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चारका विद्वेषपूर्ण नारा बुलंद करने वाली बसपा ने ब्राह्मण-दलित गठबंधन क्यों कर लिया? सत्ता का लालच कुछ भी करवा सकता है सो सब कुछ किया गया, बसपा के पक्ष से भी ब्राह्मण वर्ग के पक्ष से भी। जब दिखने लगा कि सरकार केवल और केवल स्वार्थपूर्ति में लगी है तो मतदाताओं ने इसे बदलने का विचार कर लिया। यह और बात है कि पूर्ण बहुमत में होने के कारण बसपा को हटाया जाना सिर्फ और सिर्फ चुनावों के द्वारा ही सम्भव था। चुनाव आये, परिणाम सबके सामने हैं। 2007 के विधानसभा के चुनावों के बाद कथित सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर जिस मायावती को बहुत बड़ा रणनीतिकार, बहुत बड़ा राजनीतिज्ञ घोषित किया जा रहा था, वह कल्पनालोक का महल एक झटके में धराशाही हो गया। इन चुनावों में न तो सोशल इंजीनियरिंग ने अपना असर दिखाया और न ही मायावती के रणनीतिक कौशल ने।

जनता बदलाव चाहती थी, वह मंत्रियों के, विधायकों के भ्रष्टाचार से, उनकी कारगुजारियों से छुटकारा पाना चाहती थी। ऐसे बदलाव की नीयत से मतदताओं ने बजाय त्रिशंकु विधानसभा के पूर्ण बहुमत सपा को देना स्वीकार किया। बसपा के, मायवाती के चाटुकार राजनीतिक विश्लेषकों की सोशल इंजीनियरिंगतो पूर्णरूप से ध्वस्त हो चुकी है, अब देखना है कि सपा के, मुलायम-अखिलेश के चाटुकार राजनीतिक विश्लेषक इस विजय को क्या नाम देते हैं?

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चित्र साभार गूगल छवियों से

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