27 सितंबर 2011

सत्य के पीछे का सत्य


एक अधेड़ उम्र का पिता अपने लगभग २४-२५ वर्ष के पुत्र के साथ ट्रेन में चढ़ा. पुत्र खिड़की वाली सीट पर जा बैठा और बाहर बड़े कौतूहल से देखने लगा.

ट्रेन के चलने के कुछ देर बाद वो पुत्र उत्साह से और अचंभित हो चिल्ला कर अपने पिता से बोला=पापा, ये देखो हमारे साथ पेड़ भी चल रहे हैं.

ये सुनकर पास बैठे लोगों को आश्चर्य
हुआ...

पिता शांति से अपने पुत्र की बात पर
हाँ, हाँ करता और उसके साथ अपना उत्साह भी प्रकट करता.

पुत्र लगातार इसी तरह विस्मय से कभी
चिड़ियों की बात करता, कभी बादलों के उड़ने की बात करता, कभी खम्बों के चलने की बात करता, कभी फूलों के रंगों से हर्षित होता...पिता भी लगातार उसके साथ हँसता और प्रसन्नता जताता.

बगल
के यात्रियों से उस युवा की इस तरह की हरकतें समझ से बाहर
रहीं...अंततः एक यात्री ने उसके पिता से कहा=आपका बेटा ऐसी हरकतें कर रहा है, बच्चों जैसी बातें कर रहा है, आप इसे किसी डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाते.

पिता ने बड़े ही आहिस्ते से संयमित
होकर कहा=डॉक्टर को दिखा कर ही आ रहे हैं. आज ही हॉस्पिटल से छुट्टी मिली है.
अभी इसी हफ्ते इसका ऑपरेशन हुआ है....आँखें लगीं हैं...ये जन्म से अँधा जो था.

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ये कथा अपने आप में बहुत कुछ कह जाती है, इस कारण से इसके आगे समझाने की कोई आवश्यकता नहीं है।





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