21 मई 2010

साक्षात्कार हेतु छः लाख रुपये रिश्वत न देने का पछतावा है अब हमें.


पता नहीं यह बात सभी के समक्ष रखने लायक है अथवा नहीं पर अब जबकि अदालत की ओर से भी नियुक्तियों की अनुमति मिल गई है तो लगा कि अपनी व्यथा को आप सभी के सामने रख देना चाहिए। अपने मन का बोझ कुछ तो कम होगा।

बात दरअसल यह है कि उत्तर प्रदेश के अशासकीय महाविद्यालयों में प्रवक्तओं की भर्ती हेतु उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग, इलाहाबाद कार्य करता है। उसी की ओर से रिक्तियों के विज्ञापन निकाल कर साक्षात्कार के माध्यम से योग्य व्यक्तियों का चयन करके महाविद्यालयों में नियुक्ति हेतु भेजा जाता है।

दो-तीन वर्ष पूर्व इसी तरह की प्रक्रिया अपनाते हुए आयोग की ओर से विज्ञापन संख्या 41 के माध्यम से रिक्तियों की जानकारी प्रकाशित हुई। सभी तरह की औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद सन् 2008 में साक्षात्कार प्रारम्भ हुए। साक्षात्कार हेतु अभ्यर्थियों के बुलाने का आधार मेरिट सूची होती है।

हमें भी हिन्दी विषय से साक्षात्कार हेतु बुलावा-पत्र प्राप्त हुआ। जैसा कि इस समय देश की व्यवस्था में रोजमर्रा के कार्यों की तरह से शामिल हो चुके भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी को भी नकारा नहीं जा सकता है, हमें भी बहुत से लोगों ने इन प्रभावी तत्वों को न नकारने की सलाह दी। चूँकि प्रवक्ता पदों हेतु इस प्रकार की प्रक्रिया लगभग चार-पाँच साल बाद शुरू हुई थी इस कारण हमें भी लालच लग रहा था कि कैसे भी इस बार हो जाये तो रोज-रोज की तैयार और इंटरव्यू के लफड़ों से मुक्ति मिले।

इसे इत्तेफाक ही कहा जायेगा कि इलाहाबाद में ससुराल होने के कारण साक्षात्कार में जुगाड़ जैसी विशुद्ध भारतीय सेवा के प्रयोग की सम्भावनाओं को तलाशने का कार्य अपने साले को दे दिया। साक्षात्कार में रिश्वतखोरी का चलन यहाँ किसी से छिपा नहीं था। जैसा कि जाहिर था और लगभग प्रत्येक व्यक्ति ने और आयोग की कार्यप्रणाली से परिचित महानुभावों ने भी घूस का इंतजाम कर लेने की सलाह दी

अपनी तैयारी पर भरोसा तो था ही साथ ही हमने अगली सम्भावना के लिए फिर ससुराल की ओर ताका। अवसर हाथ भी लगा। जैसा कि साक्षात्कार के बाजार का रेट वहाँ खुले रूप में चल रहा था कि सामान्य वर्ग के अभ्यर्थी को दस लाख रुपये, अन्य पिछड़ा वर्ग के अभ्यर्थी को आठ लाख रुपये और एस0सी0/एस0टी0 को छह लाख रुपये में साक्षात्कार में पास करवाये जाने का जिम्मा लिया जा रहा था।
हमारी ससुराल की ओर से आयोग के सदस्यों से लगातार सम्पर्क किया गया तो एक सदस्य ने स्थिति स्पष्ट कर दी। आयोग के सदस्य के प्रभावीजनों से बातचीत के बाद सौदा छह लाख में तय हुआ। बात हम तक भी आई, चूँकि आयोग की पिछली दो रिक्तियों पर अदालत में मामले लम्बित थे और विज्ञापन संख्या 41 का निर्धारण भी इन्हीं मामलों के अन्तिम फैसले पर आधारित था, सो हमने डर के मारे इस लेनदेन में शामिल होने से मनाकर दिया।

हमने उरई में जिस-जिस को ये बात बताई उसने इस सौदे को मान लेने की सलाह दी। बहरहाल हमने एक रुपये नहीं देने की सोच साक्षात्कार दिया। (साक्षात्कार में क्या पूछा गया ये किसी और दिन) जैसी कि साक्षात्कार बोर्ड की नीयत दिख रही थी परिणाम भी वैसे ही आये अर्थात हमारा चयन नहीं हुआ। और भी बहुतों के चयन नहीं हुए, बहुत से विषयों में नहीं हुए।

(आयोग के कार्यालय के कई पहुँच वालों ने इशारा भी किया कि इस बार किसी का चयन बिना लेन-देन के नहीं हुआ है।)

योग्य अभ्यर्थियों में निराशा और आक्रोश के भाव पैदा हुए तो राज्यपाल महोदय को शिकायत करी गईं, अदालत का दरवाजा खटखटाया गया। इस बीच चयनित अभ्यर्थियों को सशर्त नियुक्तियाँ भी दी जाने लगीं। जब इस सम्बन्ध में लोगों ने अदालत की शरण ली तो इस पर रोक लगी किन्तु यह भी बहुत ज्यादा दिन नहीं हो सका। इस बीच पिछले दो विज्ञापन जिनपर मामला अदालत में लम्बित था, अदालत का फैसला आ गया तो उसके आधार पर भी विज्ञापन संख्या 41 की नियुक्तियाँ रुक जानी चाहिए थीं किन्तु आयोग ने ऐसा नहीं किया।

इधर हमने भी सूचना का अधिकार अधिनियम का उपयोग करते हुए चयनित अभ्यर्थियों का सारा विवरण प्राप्त कर लिया जो कहीं से भी उनके योग्य होने का प्रमाण नहीं दे रहा था। चूँकि बहुत से मामले अभी इस 41 नम्बर से सम्बन्धित अदालत में लम्बित थे तो आशा थी कि अदालत इस भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाकर कुछ कुछ तो भला करेगी।

आशा से टिका आसमान भी उस समय सिर पर गिरा जब अदालत ने भी किसी तरह की भ्रष्टाचार-रिश्वतखोरी की शिकायत पर निगाह ने रखते हुए सभी पदों पर शीघ्र ही साक्षात्कार करने और जिन पर साक्षात्कार हो चुके हैं उन पर नियुक्ति के आदेश दे दिये। दुखद तो यह भी रहा कि महामहिम राज्यपाल महोदय की ओर से भी किसी तरह की आशान्वित करने वाली कार्यवाई नहीं की गई।

अब सुनने में तो अदालती कार्यवाई के बारे में बहुत कुछ रहा है किन्तु इस देश में अदालतों के बारे में कुछ भी कहना बेअदबी हो सकती है, न्यायालय का अपमान हो सकता है। हम न्यायालय का अपमान न करते हुए आज भी केवल यही सोच रहे हैं कि जिस विज्ञापन संख्या 41 के साक्षात्कार में हुए भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी को लेकर समूचे प्रदेश में खुले रूप में चर्चा हो, शिकायत की गई हो, सूचना के अधिकार का प्रयोग किया गया हो वहाँ अदालत ने भी इस मामले की तह तक जाना उचित नहीं समझा। साक्षात्कार की प्रक्रिया को निरस्त करना भी उप्युक्त नहीं समझा।

यहाँ आपको बताते चलें कि राज्य सूचना आयोग ने भी इस मामले में हमारी किसी भी अपील पर सुनवाई नहीं की।

हमने आज तक अपनी जिन्दगी में बहुत से निर्णय लिये, कुछ अच्छे और कुछ बुरे। किसी निर्णय में हम सफल रहे और किसी पर असफल किन्तु उन निर्णयों पर जिनमें हम असफल भी रह हमें कभी निराशा या पछतावा नहीं हुआ। आयोग के साक्षात्कार में छह लाख रुपये की सौदेबाजी में अपनी सहमति दे पाने का निर्णय अब पिछले कुछ दिनों से परेशान कर रहा है। यदि इतनी घूस का इंतजाम कर दिया होता तो आज हम भी किसी महाविद्यालय में हिन्दी विभाग में नियमित प्रवक्ता के पद पर बैठे दिख रहे होते। काश!!!!!

आप लोगों को अपनी व्यथा की लम्बी और उबाऊ सी प्रक्रिया से गुजार दिया, क्षमा करियेगा।


(चित्र गूगल छवियों से साभार)

3 टिप्‍पणियां:

  1. जहाँ विवेक न साथ दे, वहाँ से दूर रहा जाये तो ठीक. वरना पद भी मिल जाता और सारा जीवन कचोटता अलग कि योग्यता नहीं पैसे के आधार पर मिला है.

    अनेक शुभकामनाएँ.

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  2. इसके कई जवाब हैं -
    जिसका नहीं होता ऐसे ही आरोप प्रत्यारोप करता है
    इसकी कौन गारंटी है की आपने जुगाड़ न करवाया हो
    और आपके साले साहब क्यूं सक्रिय हुए ? आप की नैतिकता तब कहाँ गयी थी ?/
    भ्रष्टाचार कोई नयी बता तो नहीं ?
    अदालतें सब मर्ज की दवा क्यों हों ?
    मेरा जवाब _
    धैर्य रखें ,और प्रयास जारी रखें !

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  3. भ्रष्टाचार और लोलुपता ने हमारे देश को निगल लिया है, सबसे बड़ा दुख यह होता है कि योग्य व्यक्ति को योग्य स्थान नहीं मिलता है और अयोग्य उस जगह काबिज होता है।

    दुख न करें, काश का पश्चाताप न करें अगली बार इस सिस्टम का हिस्सा बनने की कोशिश करें। हमने तो बहुत कोशिश की परंतु नहीं बन पाये, हमें दुख था पर आज खुश हैं।

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