12 मई 2010

यौन शिक्षा - चुनौतीपूर्ण किन्तु आवश्यक प्रक्रिया - भाग - 1


यौन शिक्षा - चुनौतीपूर्ण किन्तु आवश्यक प्रक्रिया
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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‘यौन शिक्षा’, यदि इसके आगे कुछ भी न कहा जाये तो भी लगता है कि किसी प्रकार का विस्फोट होने वाला है। हमारे समाज में ‘सेक्स’ पूरा ‘यौन’ को एक ऐसे विषय के रूप में सहज स्वीकार्यता प्राप्त है जो पर्दे के पीछे छिपाकर रखने वाला है; कहीं सागर की गहराई में दबाकर रखने वाला विषय है। यह भारतीय समाज के संस्कारित परिवेश का परिणाम है अथवा ‘सेक्स’ को सीमित परिधि में परिभाषित करने का परिणाम है कि समाज में ‘सेक्स’ सभी के जीवन में भीतर तक घुला होने के बाद भी ‘आतंक’ का पर्याय है। यह बात सत्य हो सकती है कि भारतीय, सामाजिक, पारिवारिक परम्पराओं के चलते ‘सेक्स’ ऐसा विषय नहीं रहा है जिस पर खुली बहस अथवा खुली चर्चा की जाती रही हो। ‘सेक्स’ को मूलतः दो विपरीतलिंगी प्राणियों के मध्य होने वाले शारीरिक संसर्ग को समझा गया है (चाहे वे प्राणी मनुष्य हों अथवा पशु-पक्षी) और इस संकुचित परिभाषा ने ‘सेक्स एजूकेशन’ अथवा ‘यौन शिक्षा’ को भी संकुचित दायरे में ला खड़ा कर दिया है।

‘यौन शिक्षा’ अथवा ‘सेक्स एजूकेशन’ के पूर्व ‘सेक्स’ को समझना आवश्यक होगा। ‘सेक्स’ का तात्पर्य आम बोलचाल की भाषा में ‘लिंग’ अथवा शारीरिक संसर्ग से लगाते हैं। ‘सेक्स’ अथवा ‘सेक्स एजूकेशन’ का अर्थ मुख्यतः मनुश्य, पशु-पक्षी (विशेष रूप से स्त्री-पुरुष) के मध्य होने वाली शारीरिक क्रियाओं से लगा कर इसे चुनौतीपूर्ण बना दिया है। एक पल को ‘सेक्स एजूकेशन’ के ऊपर से अपना ध्यान हटाकर मानव जीवन की शुरुआत से उसके अंत तक दृष्टिपात करें तो पता लगेगा कि ‘सेक्स एजूकेशन’ का प्रारम्भ तो उसके जन्म लेने के साथ ही हो जाता है। इसे उम्र के कुछ प्रमुख पड़ावों के साथ आसानी से समझा जा सकता है-

(1) उम्र का पहला पड़ाव - पाँच वर्ष तक की अवस्था
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एक-दो वर्ष से लेकर चार-पाँच वर्ष तक की उम्र तक के बच्चे में अपने शरीर, लैंगिक अंगों के प्रति एक जिज्ञासा सी दिखाई देती है। इस अबोध उम्र में बच्चे अपने यौनिक अंगों को छूने, उनके प्रदर्शन करने, एक दूसरे के अंगों के प्रति जिज्ञासू भाव रखने जैसी क्रियाएँ करते हैं। यही वह उम्र होती है जब बच्चों (लड़के, लड़कियों में आपस में) में जिज्ञासा होती है कि वे इस धरती पर कैसे आये? कहाँ से आये? या फिर कोई उनसे छोटा बेबी कहाँ से, कैसे आता है? इस जिज्ञासा की कड़ी में आपने इस उम्र के बच्चों को ‘पापा-मम्मी’, ‘डॉक्टर’ का खेल खेलते देखा होगा। परिवारों के लिए यह हास्य एवं सुखद अनुभूति के क्षण होते हैं पर बच्चे इसी खेल-खेल में एक दूसरे के यौनिक अंगों को छूने की, उन्हें देखने की, परीक्षण करने की चेष्टा करते हैं (वे आपस में सहजता से ऐसा करने भी देते हैं) पर इसके पीछे किसी प्रकार की ‘सेक्सुअलिटी’, शारीरिक सम्बन्धों वाली बात न होकर सामान्य रूप से अपनी शारीरिक भिन्नता को जानने-समझने का अबोध प्रयास मात्र होता है। इस उम्र में एक प्रकार की लैंगिक विभिन्नता उन्हें आपस में दिखायी देती है; लड़के-लड़कियों को अपने यौनिक अंगों में असमानता; मूत्र त्याग करने की प्रक्रिया में अन्तर; शारीरिक संरचना में विभिन्नता दिखती है जो निश्चय ही उनके ‘लैंगिक बोध’ को जाग्रत करतीं हैं। देखा जाये तो यह उन बच्चों की दृष्टि में यह ‘सेक्सुअल’ नहीं है, शारीरिक संपर्क की परिभाषा में आने वाला ‘सेक्स’ नहीं है।

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चित्र गूगल छवियों से साभार लिए गए हैं......


7 टिप्‍पणियां:

  1. वहाँ देख आया हूँ। हिन्दी ब्लॉगरी में यह लेख कई मायनों में मील का पत्थर साबित होने वाला है।

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  2. चाचा जी यही वो लेख हैं जो आपको अन्य ब्लोगरों से अलग एक बौद्धिक ब्लोगर का दर्ज़ा प्रदान करते हैं. बहुत ही अच्छा रहा पहला भाग. अगले की प्रतीक्षा में.

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  3. ज्ञानदत्त और अनूप की साजिश को बेनकाब करती यह पोस्ट पढिये।
    'संभाल अपनी औरत को नहीं तो कह चौके में रह'

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