10 अप्रैल 2010

सांस्कृतिक आतंकवाद तो हम लोग ही पैदा कर रहे हैं...




देश की वो समस्याएँ जो सभी को दिखाई दे रहीं हैं उनका तो निदान दिख नहीं रहा और इसके बीच हमारा दिमाग दूसरे प्रकार की समस्या को देखने में लगा है। वैसे भी समाज के प्रति जो भी कुछ थोड़ा सा भी कर्तव्य समझता होगा उसको प्रतिदिन किसी न किसी समस्या से रूबरू होना पड़ता होगा।

इधर कुछेक सालों में आतंकवाद, हिंसा, अपहरण, महिला हिंसा, लूटमार, हत्या आदि की घटनाओं के बहुत सारे उदाहरण हमारे सामने आते रहे हैं। इनके साथ ही एक दूसरे प्रकार की समस्या, जिसे हम आतंकवाद का ही नाम देते हैं, सामने आ रही है। इस समस्या को हमने नाम दिया है ‘‘सांस्कृतिक आतंकवाद।’’



सांस्कृतिक आतंकवाद इस तरह का आतंकवाद है जिसके लिए किसी देश को कोई प्रयास नहीं करने पड़ रहे हैं। जो आतंकवादी हैं वे अपने आतंक के द्वारा पहले से ही ऐसा कर रहे हैं पर इसके पीछे उनका मकसद सांस्कृति प्रदूषण को, आतंकवाद को फैलाना नहीं है। तालिबानों द्वारा बामियान में बुद्ध प्रतिमा को नष्ट करना उनकी हताशा भी हो सकती है।

इसके ठीक उलट आज सांस्कृतिक आतंकवाद का दौर बढ़ता जा रहा है। कई वर्ष पहले पर्यावरण के बारे में लोगों को जागरूक करते समय सांस्कृति प्रदूषण के बारे में पढ़ाया जाता था। इसी प्रदूषण का विकृत रूप आतंकवाद के रूप में सामने आया है।

उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है। आप स्वयं देखिए, समलैंगिकता, स्वच्छन्दता के नाम पर यौन सम्बन्धों की खुली प्रस्तुति, विवाह पूर्व यौन सम्बन्धों की स्वीकार्यता, सहजीवन की स्वीकार्यता, अविवाहित मातृत्व को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने का प्रयास, महिलाओं को दबाने के लिए उनके साथ बलात्कार जैसी स्थितियाँ, बाल-यौन शोषण की घटनाएँ, सगे-सम्बन्धियों द्वारा सेक्स की घटनाएँ आदि बताती हैं कि अब जन-मानस के बीच सकारात्मक सोच काम नहीं कर रहीं है। सभी किसी न किसी रूप में देह के आसपास ही विचरण कर रहे हैं।

यह देह विचरण भी अपने आपमें एक बहुत गम्भीर विषय है और एक-दो वर्षों के बाद इस पर भी दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, मुस्लिम विमर्श, आदिवासी विमर्श की तरह से विमर्श शुरू होने वाला है। साहित्य में कसी न किसी रूप में स्त्री विमर्श के साथ साथ देह विमर्श चालू हो भी गया है। बस उसका किसी प्रतिष्ठित लेखक अथवा आलोचक की तरफ से नामकरण संस्कार होना बाकी है।

इस तरह की स्थितियाँ किसी भी रूप में हमारी संस्कृति को सुरक्षित नहीं रख सकतीं हैं। संस्कृति की यही असुरक्षित स्थिति जिस किसी के द्वारा भी पैदा की जा रही हो वह किसी आतंकवादी से कम नहीं। अपने सामज, परिवार के बीच ही बैठे ऐसे सांस्कृति आतंकवादियों से बचना होगा और देश को सांस्कृतिक आतंकवाद से बचाना होगा।




(चित्र गूगल छवियों से साभार)