21 अप्रैल 2010

करते रहो अपराध --- तुम कहाँ करते हो, करने वाला और करवाने वाला तो भगवान है




धर्म के नाम पर जो आस्था लोगों में दिखती है उस आस्था के पीछे के तर्क और कुतर्क अपनी आस्था को सही सिद्ध करने के लिए दिये जाने का औचित्य आज तक हमारी समझ में नहीं आया। समाज हर प्रकार की सोच वालों से भरा पड़ा है, किसी की सोच धर्म को लेकर, ईश्वर को लेकर सकारात्मक है और किसी की सोच नकारात्मक है। सभी के अपने-अपने दृष्टिकोण हैं, इसमें अच्छा-बुरा स्वयं उसकी सोच का परिणाम हो सकता है।

ईश्वर के अस्तित्व को लेकर, उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों को लेकर समाज में अपनी-अपनी राय कायम है। जो भी ईश्वर को मानता है, उसके अस्तित्व पर भरोसा करता है उसके अनुसार प्रत्येक होने वाले कार्य के पीछे कुछ न कुछ अच्छाई छिपी होती है। हो सकता है कि यह देखने का नजरिया हो किन्तु हमेशा ही ऐसा हो यह सत्य नहीं है।

(चित्र गूगल छवियों से साभार)

माना कि इंसान के साथ जो भी घटित होता है उसके पीछे भगवान की अच्छा करने की मंशा छिपी होती है तो फिर आपस में किसी भी बात को लेकर विवाद क्यों होता है? क्यों नहीं हर काम को भगवान की अच्छी नियति का परिणाम माना जाता है? यह भी स्वीकारा जाता है कि व्यक्ति जो भी काम करता है उसके करवाने के पीछे भगवान का हाथ होता है। यदि इसे भी ईश्वरवादी दृष्टिकोण से सही मान लिया जाये तो भी हमें किसी भी काम के लिए किसी पर आरोप-प्रत्यारोप नहीं करने चाहिए।

इस मत के अनुसार तो आतंकवाद, हिंसा, हत्या, बलात्कार, डकैती आदि-आदि जो कुछ भी हो रहा है उसमें इंसान का नहीं भगवान का हाथ है। तमाम सारे सेक्स स्कैंडल में बाबाओं का फँसना दिखाया जा रहा है तो बेचारे बाबा कहाँ ऐसा कर रहे हैं, करवाने वाला तो ईश्वर है और हो सकता है कि इस सेक्स स्कैंडल में भी कोई अच्छाई छिपी हो?

हो सकता है कि इस पूरे दृष्टिकोण में, सोच में कोई सकारात्मकता छिपी हो किन्तु इसके बाद भी एक बात हमारी समझ में कभी नहीं आई कि जिस परिवार में किसी जवान बेटे-बेटी की मौत हो गई हो वहाँ इस तरह की घटना के पीछे भगवान की कौन सी अच्छाई छिपी हो सकती है?

यह भले ही हो सकता हो कि हम अपने आपको प्रत्येक कार्य के लिए उपयुक्त नहीं पाते हैं और ऐसे में किसी न किसी का सहारा खोजते हैं। इस सहारे के लिए हमने भगवान जैसी सर्वशक्तिमान अवधारणा को जन्म दे रखा है। यदि ऐसा है तो इस तरह के कुतर्क अवश्य ही समाप्त होने चाहिए कि जो होता है वह अच्छे के लिए होता है अथवा जो भी होता है वह भगवान की मर्जी से होता है।

भगवान, ईश्वर व्यक्ति की अपनी श्रद्धा का प्रतीक है, इसे किसी पर जबरदस्ती नहीं थोपा जाना चाहिए। ऐसा आवश्यक नहीं कि किसी काम का फल एक के लिए सुखद हो तो वह सभी के लिए सुखद ही होगा। भगवान का नाम लेकर समाज को बरगलाने वालों से अब सावधान रहने की आवश्यकता है क्योंकि इधर हाल के वर्षों में भगवान, ईश्वर, पूजा, हवन, ज्योतिष आदि पर लोगों की श्रद्धा अगाध रूप से बढ़ती जा रही है जो यकीनन किसी सुखद और सकरात्मक दृष्टिकोण का परिचायक नहीं है।

इस बढ़ती हुई भक्ति भावना की सत्यता को, ईश्वर की सत्ता की सत्यता को जल्द से जल्द सामने लाना होगा। इसके पीछे इस तथ्य को ध्यान रखना होगा कि अब ईश्वरीय सत्ता में अगाध आस्था, श्रद्धा, भक्ति दर्शाने वाला वर्ग युवाओं का है। यह वह युवा वर्ग है जिसके हाथों में देश का, समाज का और स्वयं उनका भविष्य है और इन हाथों में अभी से पूजा की थाली, फूल, जुड़े हुए हाथ, मंत्रोच्चारण करती जुबान कदापि सुखद और सकारात्मक नहीं कहे जा सकते हैं।



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