03 अप्रैल 2010

बच्चे माता-पिता और घर होने के बाद भी यतीम और बेघर हैं



बच्चों को माता-पिता के प्यार और उनके संरक्षकत्व की कितनी आवश्यकता है यह बात आज के समय में शायद कोई आसानी से समझने को तैयार नहीं है। आधुनिकता के वशीभूत बहुत से लोग तो ऐसे हैं जो इस तरह के संरक्षकत्व को गुलाम मानसिकता से भरा हुआ देखते हैं। यदि समाज के हालातों को और इन हालातों में बच्चों की स्थितियों को ध्यान में रखकर विचार किया जाये तो पता चलेगा कि बच्चे किस प्रकार से स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।

(चित्र गूगल छवियों से साभार)


आज हो यह रहा है कि छोटे शहर हों अथवा बड़े शहर, किसी में भी माता-पिता के पास समय नहीं है कि वे अपने बच्चों का ध्यान रख सकें। जो माता-पिता नौकरी कर रहे हैं उनके बच्चे आया के इशारे पर अथवा किसी और नौकरों के सहारे पल रहे हैं। जिन घरों में माताएँ नौकरी नहीं कर रहीं हैं वे आधुनिकता के वशीभूत होकर स्त्री-विमर्श के नाम पर स्वयं को केवल बच्चों की परवरिश के लिए जिम्मेवार नहीं स्वीकारतीं हैं। इस प्रकार के हालात बच्चों को घर और माता-पिता होते हुए भी बेघर और यतीम बना रहे हैं।

यह किसी तरह का मनगढ़ंत विषय अथवा मुद्दा नहीं है वरन् वह समस्या है जिस पर हम यार-दोस्तों की कई बार चर्चा होती रहती है। इस चर्चा के करने के पीछे के कारण हमें शहर में घूमते टहलते ही दिख जाते हैं। बच्चे जो अभी इंटरमीडिएट में अथवा हाईस्कूल में पढ़ रहे हैं वे इतने बड़े नहीं होते कि उन्हें मोटरसाइकिल जैसे वाहन की आवश्यकता पड़े। यातायात के नियमानुसार उनको वाहन चालन का लाइसेंस भी नहीं दिया जा सकता, इसके बाद भी शहर की सड़कों पर फर्राटा भरते दो-पहिया वाहन दिखाई देते हैं और साथ ही दिखते हैं सड़कों पर गिरे-घायल पड़े हमारे नौनिहाल। (ये मात्र एक उदाहरण है, ऐसे बहुत से किस्से हैं जो बच्चों की मानसिकता को बताते हैं.)

माता-पिता या तो अपनी नौकरी में व्यस्त हैं अथवा किसी और कामों में व्यस्त रखते हुए बच्चों की ओर से अपना ध्यान हटा चुके होते हैं। उनका काम बच्चों को गाड़ी, मोबाइल, जेबखर्च आदि देकर ही समाप्त हो जाता है। इसके बाद यदि बच्चों की किस्मत होगी जीवन जीने की तो वे दुर्घटना के बाद भी बच जायेंगे; बच्चों में क्षमता होगी आगे बढ़ने की तो वे किसी न किसी प्रकार से पढ़ लिख जायेंगे। माता-पिता ने तो अपना दायित्व निभा लिया है उनको पैदा करके।

इंटरमीडिएट और हाईस्कूल स्तर के बच्चों से इतर स्नातक स्तर के और इससे आगे के युवा वर्ग की कहानी तो और भी गम्भीर है। इनको न तो घर पर पूरा ध्यान दिया जा रहा है और समाज भी इन पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं करता है। इस आयु वर्ग के लोगों में विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण भी अपने चरम पर होता है। अच्छे और बुरे की परवाह किये बिना से लोग बस अपने बारे में ही विचार करते हुए आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं। यदि इस प्रयास में किसी तरह की कोई हताशा हाथ लगती है तो इनके आगे के जीवन के नशे में, अपराध में बदल जाने की सम्भावना बहुत अधिक हो जाती है।

समाज में परिवर्तन प्रत्येक कालखण्ड में होते रहे हैं और होना भी चाहिए किन्तु इन परिवर्तनों के मध्य हमें मूल स्वरूप को नहीं भूलना होगा। अब तो सहजीवन, विवाहपूर्व यौन सम्बन्ध और समलैंगिक की वकालत भी होने लगी है तो इन बच्चों के भविष्य को और उनके द्वारा पैदा होने वाली पीढ़ी के भविष्य को अभी से समझा जा सकता है। आप कुछ समझ रहे हैं न!!!

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