04 अप्रैल 2010

एक व्यक्ति, 348 दिन का मुकदमा और 40 करोड़ रुपये से अधिक का खर्च



घटना
एक और शहर एक।
घटना एक और अंजाम देने वाले दस।
घटना एक और हताहत सैकड़ों।
घटना एक और प्रभावित हजारों।
घटना एक और देखने वाले लाखों।

अब
घटना के बाद की स्थिति---

आये
दस और शामिल दस।
आये दस और मरे नौ।
आये दस और बचा एक।

अब
इस एक बचे और इसी एक पकड़े जाने के बाद की हालत---

एक
व्यक्ति और एक अदालत।
एक व्यक्ति और 11500 (ग्यारह हजार पाँच सौ) की चार्जशीट।
एक व्यक्ति और 348 दिन की अदालती कार्यवाही।
एक व्यक्ति और 658 गवाहों के बयान दर्ज।
एक व्यक्ति और 296 गवाहों की अदालत में उपस्थिति।
एक व्यक्ति और 40 करोड़ रुपये से अधिक का खर्च।

इतना सब होने के बाद की सम्भावना---

इंतजार
है अब 3 मई का।
इंतजार है अब सजा का।
इंतजार है अब फाँसी का।
इंतजार है अब न्याय का।

इस इंतजार के बाद भी क्या मिलेगा----

सरकार
को कुछ सबूत पर शांति-वार्ता।
पीड़ितों को कुछ संतोष पर आँखों में आँसू।
पीड़ितों को राहत किन्तु परिवार के सदस्य के खोने का ग़म।

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इस
केस के बारे में आप सभी को पता है। नाम लेना भी आवश्यक नहीं।


एक सवाल हमारे मन में इसके साथ ही यह उठ रहा है कि जिस अदालत में यह मुकदमा चल रहा है वह देश की कोई सर्वोच्च अदालत तो नहीं?

यहाँ
से आने वाले किसी भी फैसले को क्या उस आतंकवादी के द्वारा उच्च स्तरीय अदालत में चुनौती दी जा सकती है?

इस
अदालत से आने वाला फैसला कोई अंतिम फैसला तो होगा नहीं?

यदि
3 मई को आने वाले फैसले को आतंकवादी मेहमान द्वारा चुनौती दी गई तो फिर बढ़ेंगे ऊपर दिये आँकड़े। तो फिर ऐसे एक व्यक्ति को पकड़ कर हमने कौन सी बुद्धिमानी दिखाई है?

सोचिए
कि इस आतंकवादी से मिले सबूतों का हमारी सरकार क्या करेगी? (सबूतों का अचार भी तो नहीं डाला जा सकता है?)

अनुमार
लगाइये खर्चे का और विचारिए कि 40 करोड़ रुपये से अधिक का खर्चा हमारे लिए किफायत वाला है अथवा उसी समय कुछ सैकड़े रुपयों के कारतूस को उस आतंकवादी के सीने में उतारना किफायती रहता?

क्षोभ जब हमारे मन में है जिसने सारी घटना को सिर्फ टी0वी0 पर ही देखा है, जिसका कोई सगा-सम्बन्धी इस हादसे का शिकार नहीं बना तो साचिए उस व्यक्ति की हालत जिसने इस घटना को प्रत्यक्षतः सहा है। इस घटना में अपने किसी सगे-सम्बन्धी को सदा-सदा के लिए खोया है।

ऐसी न्यायप्रियता और हमारा कर्तव्यनिष्ठ होना किस तरह के व्यक्तित्व का परिचायक है?

ऐसे
सबूतो का ढेर लगाकर हम किससे अपने ऊपर होने वाले अत्याचार का बदला लेना चाहते हैं?



एक व्यक्ति, 348 दिनों का मुकदमा और 40 करोड़ रुपये से अधिक का खर्च ---- ये है समझदारी भरा फैसला


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(दोनों चित्र गूगल छवियों से साभार)

2 टिप्‍पणियां:

  1. अब भाई साब! ये तो पता नहीं की ये सबूतों का आचार डालेंगे या तेल निकालेंगे. हाँ इतना जरूर है कि आप कि ही तरह मैं भी खीजा हुआ हूँ.कुछ भी कर सकती है इस देश कि सरकार. हो सकता है पाकिस्तान से डरते हों? हो सकता है कसाब अच्छी किस्मत लिखा के लाया हो? हो सकता है शहीदों कि आत्मा को चिढाना चाहते हों ? कुछ भी हो सकता है. फ़िलहाल मुस्लिम आरक्षण कि तैयारी में है सरकार.मुस्लिम वोटो को पक्का करना है.

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  2. saja dene ki 1 nishchit prakirya hoti kisi loktantrik desh me,mujrim koi bhi kaisa bhi ho kaheen ka bhi ho.
    is se humara loktantra aur naya ki paribhasha hi majboot hoti hai

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