16 मार्च 2010

सिद्धान्तविहीन राजनीति का सिद्धान्त


राजा और राजनीति, राजनीति और राजनीतिक सिद्धान्त, सिद्धान्त और नियम यह एक कदम हो सकता है राजनीति का। इन कदमों में राजशाही समाप्त हुई किन्तु राजा समाप्त नहीं हुए। राजा का पद समाप्त हुआ किन्तु राजपद की ताजपोशी होना बन्द नहीं हुई। इसी समाप्ति और चालू रहने के बीच ही राजनीतिक में भी सिद्धान्तों की राजनीति तो समाप्त हो गई और सिद्धान्त विहीन राजनीति की शुरुआत होने लगी।



किसी भी स्थिति के सिद्धान्त क्या होगे और कब तक वे लागू रहेंगे यह एक प्रश्न हो सकता है किन्तु हमारा मानना है कि सिद्धान्त वही होते हैं जो कभी बदलते नहीं या फिर उनमें परिवर्तन नहीं होता। यदि ऐसा है तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि राजनीति में कोई सिद्धान्त था ही नहीं? यदि कोई सिद्धान्त होते तो हम कैसे उनके बदलने की चर्चा करते, हाँ नियमों का बदला जाना तो समझ में आता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो पता चलता है कि सिद्धान्तों का निगमन भी बड़ी कठिनता से होता है और उसको सिद्धान्त बनने के पीछे भी एक बड़ी लम्बी-चौड़ी प्रक्रिया होती है। राजनीति में जिन सिद्धान्तों की हम बात करते हैं वे हमारे जीवन के सिद्धान्त हैं। इनके सहारे ही हम अपनी जीवन-शैली को सुचारू रूप से आगे बढ़ाने का प्रयास करते हैं।

जीवन से इतर जब हम राजनीति की बात करते हैं तो हम इसके द्वारा कल्पना करते हैं एक ऐसी व्यवस्था की जो हमें शासन-प्रशासन की उपलब्धता करवाती है। एक ऐसी व्यवस्था की जो हमें संसाधनों की, अवसरों की सुविधा-उपलब्धता उपलब्ध करवाती है। इसके बीच ही हम व्यक्ति के राजनैतिक आवरण और कार्यों से ही कुछ सिद्धान्तों को उसके साथ जोड़कर देखने लगते हैं। इसी अवस्था में आकर हमें राजनीति के सिद्धान्तों का भान होता है।

वर्तमान में हमने राजनीति में सक्रिय व्यक्तियों के आधार पर, उनके कार्यों के आधार पर सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर लिया है। अब हमें दिखाई देता है कि किसी भी दल के लिए अपने किसी भी सिद्धान्त का कोई अर्थ नहीं। उसके लिए उसके ही द्वारा बनाये गये सिद्धान्तों की कोई अहमियत नहीं। किसी दल के लिए कल कोई दुश्मन से ज्यादा खतरनाक होता है तो अगले ही दिन वही उसका सर्वप्रिय बन जाता है। वर्षों पहले के नारों में से सबसे विवादित नारा ‘तिलक, तराजू और तलवार........’ किसी ने भी नहीं भुलाया होगा किन्तु आज यही सबसे आगे की पंक्ति में साथ देते दिख रहे हैं।

विवादों और आरोपों का राजनीति के साथ चोली-दामन का साथ है किन्तु अब इसमें स्वार्थपरकता भी शामिल हो चुकी है। स्वार्थ की स्थिति यह है कि प्रत्येक दल को दलित और मुस्लिम एक प्रकार का वोट-बैंक लगता है। हरेक दल किसी न किसी रूप में इन दोनों को अपने-अपने पाले में खींचने की कोशिश में लगे रहते हैं। इसके लिए उन्हें किसी भी हद तक गिरना पड़े, वे स्वीकार कर लेते हैं। मुस्लिमों को राजनीति में आरक्षण की बात हो अथवा दलितों के आरक्षण में से उनको भी आरक्षण देने की रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट, सब कहीं न कहीं स्वार्थपूर्ति का साधन बनती दिख रही हैं।

इसी स्वार्थ की राजनीति में से जब सिद्धान्त की मृत्यु हो जाती है तो विध्वंसक राजनीति की शुरुआत होती है। आये दिन आरोपो-प्रत्यारोपों के दौर, राजनैतिक षडयन्त्रों का ताना-बाना, अपराधियों का नवीनीकरण होकर राजनीति में प्रवेश करना आदि-आदि घटनाएँ चिन्ता का विषय होनी चाहिए किन्तु नहीं हैं। कारण वही सिद्धान्तविहीन राजनीति।

ऐसा कब तक होगा यह कहना तो बहुत ही मुश्किल है किन्तु इतना तो कहा जा सकता है कि जब तक होगा तब तक किसी भी वर्ग का, किसी भी जाति का, किसी भी धर्म का भला होने वाला नहीं, सिवाय उन राजनैतिक महानुभावों के जो इस सिद्धान्तविहीन राजनीति को जन्म दे रहे हैं।


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चित्र साभार गूगल छवियों से

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