30 मार्च 2010

मनुष्य के दोहरे व्यक्तित्व ने बनाया है समाज को विकृत



कभी-कभी विचार आता है कि व्यक्ति कैसे एक पल में अपने संस्कारों को भूल जाने की बात करता है और दूसरे ही पल वह उनका निर्वहन करता दिखाई देता है। कभी वह संस्कारों को रूढ़ियों का नाम देकर उसके निर्वहन करने वालों को कोसता है, बुरा-भला कहता है और एक दिन स्वयं ही उन्हीं संस्कारों का निर्वाह कर रहा होता है।

ऐसा किसी एक के साथ नहीं बल्कि सभी के साथ होता है। आजकल देखने में आता है कि जो ज्यादा ही आधुनिक होते जा रहे हैं, जिनके लिए संस्कार किसी खेल-खिलौने से कम नहीं हैं वे विवाह के अवसर पर कन्यादान की रस्म को रूढ़ि करार देते हैं। ऐसा होना भी चाहिए कि हमारे समाज में जो भी रीतियाँ समय के साथ नहीं बदलीं हैं और रूढ़ियों के रूप में आ गईं हैं उनका निस्तारण होना चाहिए।



देखा जाये तो विवाह में सिर्फ कन्यादान ही एक रूढ़ि के रूप में नहीं है अपितु बहुत सी छोटी-छोटी सी रस्में और कार्यक्रम भी रूढ़ि का रूप लेते जा रहे हैं। आप ही बताइये कि विवाह के पूर्व दूल्हे का घोड़ी पर अथवा आजकल कार आदि में सज-सजाकर दल-बल के साथ आने की रस्म का क्या अर्थ है?

वर-यात्रा के आने के बाद द्वारचार की रस्म का क्या संदर्भ है?

जयमाल की रस्म कायदे से सात भाँवर पड़ने के बाद होनी चाहिए किन्तु आजकल के दिखावे भरे दौर में यही रस्म सबसे पहले होती है तो ऐसा क्यों?

विवाह में फेरों, सात-पाँच वचनों आदि का भी औचित्य आज समझ में नहीं आता है, इसके बाद भी आधुनिकता की परिभाषा में स्वयं को कसने वाले स्त्री-पुरुष सिर्फ और सिर्फ कन्यादान का ही विरोध करते दिखते हैं।

इसी तरह से हिन्दुत्व को कोसने वाले उसके सारे रीतिरिवाजों, कर्मकांडों को गाली देते दिखते हैं। और तो और हमारे तथाकथित हिन्दू भाई ही आधुनिकता की चपेट में आकर इस तरह के प्रलाप करते देखे जाते हैं किन्तु वहीं इन कर्मकांडों में सबसे आगे दिखाई देते हैं।

इस तरह के कर्मकांडों में एक संस्कार अन्तिम संस्कार भी होता है। यदि हिन्दू रीतिरिवाज से सभी संस्कार उक ढकोसला हैं तो फिर अन्तिम संस्कार और त्रयोदशी भोज को करवाने की क्या जरूरत आन पड़ती है?



क्यों नहीं अपने आपको आधुनिकता की श्रेणी में खड़ा करने वाले आधुनिकता के समर्थक अपने किसी प्रिय की, बुजुर्ग की मत्यु पर उसके पार्थिव शव को किसी मेडीकल कॉलेज को दान नहीं कर देते?

क्यों उनके मन में भी इसके अन्तिम संस्कार और विसर्जन की भावना रहती है?

क्यों वह मन ही मन गाली देता हुआ सभी तरह के क्रियाकलापों को करता जाता है?

समाज के अन्दर विकृति की भावना आने का एक सबसे बड़ा कारण ही है मनुष्य का अपने आचार-विचार में अन्तर होना। आज हम जिस तरह से दो चेहरे लगाकर समाज में अपना अस्तित्व बनाने का प्रयास कर रहे हैं, वह समाज के लिए तो घातक है ही स्वयं हमारे लिए भी घातक है। समाज को विकृत मानसिकता से बचाने के लिए आवश्यक है कि हम अपनी सोच में से विकृतता को समाप्त करें और संस्कृति, संस्कारों का सम्मान करें। इसके साथ ही इस तरह के क्रियाकलापों का विरोध करें जो वाकई समाज को रूढ़ियों में बाँधते हैं।




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चित्र गूगल छवियों से साभार