06 मार्च 2010

ये पुरुष बेचारे, महिलाओं के आगे, लगते दीन-हीन से सारे

100वाँ साल है अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस का और ऐसे में आशा व्यक्त की जा रही है कि देश की संसद में महिला आरक्षण बिल पेश हो जायेगा और स्वीकार भी होगा। इस बिल के विरोध में तमाम सारे लोग हैं जो इसके अच्छे और बुरे पक्षों पर अपनी राय दे रहे हैं।



हमारा यहाँ महिला आरक्षण बिल को लेकर किसी तरह के पक्ष या विपक्ष वाली बात नहीं है। हमारा तो मानना है कि विगत 14 वर्षों से चला आ रहा इंतजार समाप्त हो और इस बिल को पास होने का सौभाग्य प्राप्त हो।

हमारी खुशी तो इस बात पर है कि बात-बात पर पुरुष समाज को कोसने का कार्य करने वाली महिलाओं के लिए बिल का रास्ता पुरुषों के समर्थन से ही तय होगा। इसे हमारा किसी प्रकार का दम्भ न माना जाये, हम उस आइने को दिखाने का प्रयास कर रहे हैं जिसे महिलाएँ देखना नहीं चाहतीं हैं।

महिलाओं से सम्बन्धित किसी भी कमी अथवा समस्या का जिम्मेवार वे पुरुष समाज को ठहरातीं हैं और सफलता अपने हिस्से में रखतीं हैं। जो महिलाएँ बात-बात पर पुरुष समाज को दोष देने लगतीं हैं वे बतायें कि उनकी शिक्षा-दीक्षा किस व्यक्ति की सहायता से सम्पन्न हुई है?

आज संसद में जो भी महिलाएँ सांसद बनी बैठीं हैं, विधान मण्डलों में जो भी महिलाएँ आसीन हैं वे बतायें कि क्या उनको जिताने में पुरुष वर्ग का सहयोग नहीं मिला है? पूर्ण समन्वित

देश की राष्ट्रपति महिला, लोकसभा अध्यक्ष महिला, सत्ता पक्ष दल की नेता भी महिला, उ0प्र0 की मुख्यमंत्री भी महिला हैं क्या ये सभी मात्र महिलाओं के समर्थन से यहाँ तक पहुँचीं हैं?

शिक्षा ग्रहण करने वाली महिलाओं के आज के आँकड़े और देश के स्वतन्त्र होने के समय के आँकड़ों को देखा जाये और बताया जाये कि क्या महिलाओं की संख्या में वृद्धि सिर्फ और सिर्फ महिलाओं अकेले की देन है?

नौकरी करने वाली महिलाएँ स्वयं बतायें कि क्या उनको उनके परिवार के किसी भी पुरुष का साथ नहीं मिला?

हमारा कहना यह कदापि नहीं हैं कि देश में महिलाओं के प्रति हिंसा का माहौल अथवा भेदभाव का माहौल थम गया है। यह माहौल थमा भले ही न हो किन्तु इसमें कमी तो आई ही है। शहरों में और ग्रामीण इलाकों में भी परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं।

रही बात अत्याचार की तो पुरुष ने पुरुष के ऊपर अत्याचार जारी रखे हैं तो नारी ने नारी का भी शोषण किया है। शोषण का मनोविज्ञान सत्ता और वर्चस्व का मनोविज्ञान है, इसमें पुरुष और महिला होना महत्वपूर्ण नहीं है।

बहरहाल............बिल पास हो और महिलाओं का एक तिहाई हिस्सा संसद के अन्दर पहुँचे। अब देखना ये है कि बिल पास हो जाने के बाद महिलाएँ पुरुषों के सहयोग को कितना स्वीकारतीं हैं? महिला होने के बाद स्वयं महिलाओं के उत्थान के लिए वे किन-किन परिवारों की महिलाओं को संसद में देखना पसंद करतीं हैं? बिल पास न हो पाने की दशा में तो पुरुषों की छीछालेदर तो होनी ही है, बिल पास होने के बाद भी पुरुषों की पीठ ठोंकने कोई महिला नहीं आने वाली।


जय हो........जय हो.........जय हो।

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दोनों चित्र गूगल छवियों से साभार



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