06 जनवरी 2010

आज हमने होते देखी एक भ्रूण हत्या

बहुत पहले अपनी पोस्ट पर एक चुटकुला लिखा था ‘एक बुढ़िया बचपन में ही मर गई थी।’ आज मेल खोली तो उसमें मानस के मोती से आती सूचना में अविनाश जी ने इसी शीर्षक से अलबेला जी की पोस्ट की सूचना दी। लगा कि इस लघु चुटकुले की आवश्यकता अलबेला जी को क्यों पड़ गई?


चूँकि आज डिग्री शिक्षकों की कलमबन्द हड़ताल होने के कारण पढ़ाई तो हो नहीं रही थी, समय निकलता देख इंटरनेट पर आ गये। इसी दौरान याद आया कि एक बुढ़िया बचपन में मर गई को देख लिया जाये। पहुँचे अलबेला जी के पास तो वहाँ अभी भी सम्मान समारोह का स्यापा फैला हुआ था। मन दुखी हुआ कि किसी न किसी रूप में विवाद ब्लाग की थाती बनती जा रही है।

हमारी इस पोस्ट को केवल इस सम्मान समारोह, वोटिंग, चयन से सम्बन्धित न समझा जाये। अपनी छोटी सी अवस्था में अपने छोटे से शहर उरई में बहुत से आयोजन हम भी अपने साथियों की मदद से करवाते रहे हैं। इसके अलावा बहुत से आयोजनों में हिस्सा लेते रहे हैं। ऐसी समस्याओं से सभी को दो-चार होना पड़ता है। समस्या आती है और उसका हल भी खोजा जाता है। सम्भवतः अलबेला जी ने कोई तो हल निकाला होगा तभी इस आयोजन को आगे के लिए टाल दिया।

इस आयोजन की ही नहीं ये देशव्यापी समस्या है कि किसी न किसी रूप में वरिष्ठ को प्राथमिकता दी जाये। उदाहरण देखिये, पिछले कुछ समय से उत्तर प्रदेश सरकार डिग्री कालेज में शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए मानदेय शिक्षकों की नियुक्ति कर रही है। इस नियुक्ति में भी सेवानिवृत शिक्षकों को वरीयता दी जा रही है। सोचिए जो शिक्षक सेवानिवृत्ति पा चुका है अर्थात् सरकार की दृष्टि में जिसे कार्य से आराम दिये जाने की आवश्यकता है उसे फिर से बुलाया जा रहा है। इसके अलावा एक डिग्री शिक्षक जितनी पेंशन पाता है वह किसी भी अच्छी-भली नौकरी के वेतन से भली है। इसके बाद भी मानदेया पर रिटायर शिक्षक की नियुक्ति किसी न किसी नवयुवक के भविष्य की राह को रोकना ही है। आखिर बताइये किस काम की है ऐसी वरिष्ठता जो किसी नवयुवक के रास्ते की बाधा बने।

इसी तरह किसी आयोजन, समिति, मंच की बात होगी तुरन्त वरिष्ठ की चर्चा शुरू हो जाती है। क्यों? क्या किसी समिति के द्वारा किसी नये को वरिष्ठ का मूल्यांकन करने का अधिकार नहीं? क्या सभी वरिष्ठ इस तरह के कार्य करते हैं जिनका मूल्यांकन नहीं होना चाहिए? किसी आयोजन के मंच पर हमेशा बुजुर्गों की टीम दिखई देती है और नवयुवक कार्ड बाँटते, पानी पिलाते, बैनर टाँगते, मंच को सजाते, समाचार-पत्रों की कटिंग काटते, कुर्सी साफ करते, उन्हें एकसा लगाते ही दिखाई पड़ते हैं।

हमने अपने शुरूआती कार्यक्रमों में युवाओं को मंच देने में बड़ी ही आलोचना सही है किन्तु अपना नजरिया आज तक नहीं बदला। इसी का परिणाम है कि आज उरई शहर में हमारे साथ युवाओं की बड़ी ही कर्मठ टीम है और इस टीम को सभी बुजुर्ग भी सराहते हैं। इसके पीछे हम युवाओं के द्वारा किये जा रहे कार्य, बुजुर्गों का सम्मान है।

किसी आन्दोलन की बात हो, किसी धरने की बात हो, किसी संघर्ष की चर्चा हो तो समाज यही अपेक्षा करता है कि सिर्फ युवा आगे आये। यहाँ वरिष्ठ क्यों नहीं? जेल जाने, पुलिस से पिटने के बाद किसी न किसी युवा का भविष्य अंधकारमय होता है। परिवार की, अपने घर के तमाम जिम्मेवार कार्यों की जिम्मेवारी युवाओं के कंधे पर होती है।

फिलहाल वरिष्ठ-वरिष्ठ का रोना रोते सभी लोगों से एक दो सवाल इसी वरिष्ठता और कनिष्ठता को लेकर करने हैं कि आपके जिले में जब कोई जिलाधिकारी अथवा पुलिस अधीक्षक आता है तो आप उसमें वरिष्ठता क्यों नहीं तलाशते? आप कितने सारे बुजुर्गों ने युवा राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री स्वीकारा है? यदि आज राहुल गाँधी प्रधानमंत्री बन जायें तो वरिष्ठ-वरिष्ठ चिल्लाने वाले क्या उनके चयन पर आपत्ति उठायेंगे?

अब फिर अलबेला जी की पोस्ट पर कि ये बुढ़िया के बचपन में मरने की घटना नहीं है यह तो भ्रूण हत्या है उस भव्य आयोजन की जिसे अलबेला जी करवाना चाह रहे थे। कन्या भ्रूण हत्या निवारण को रोकने में लगे हमारे कदम आज एक दूसरी तरह की भ्रूण हत्या होते देख कर सहम गये। सोचने यह लगे कि युवाओं को मौका मिलता नहीं छीनना पड़ता है। अबकी छीने जाने वाले मौके से कोई वरिष्ठ, कोई बुजुर्ग परेशान न हो।




5 टिप्‍पणियां:

  1. sandarbh jo bhi raha ho, lekin aapka aalekh padh kar laga jaise main apne aap ko hi baanch raha hoon.......

    raaj kapoor ko faalke award tab milta hai jab vah chalne-firne ke laayak bhi nahin rahte....

    jo bhi ho, aalekh ke liye badhaai !

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  2. एक बुढिया थी जिसकी भ्रूण ह्त्या कर दी गई ??? :)

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  3. कठिन है जीवन की राह
    वही उबर पाया जो पहुँच पाया उस पार

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