15 सितंबर 2009

फ़िर तो आपसी सहमती के नाम पर ये भी स्वीकार्य हों

हम फिर एक बार समलैंगिकता पर अपनी छोटी सी पोस्ट लेकर आ गये हैं। जबसे उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में आपसी सहमति के आधार पर समलैंगिक सम्बन्धों को वैधानिक माना है तब से दिमाग में कुछ कृत्यों की वैधानिकता-अवैधानिकता पर सवाल उठने लगे हैं।


आप मार्गदर्शन करें कि ये कृत्य भी किसी दिन आपसी सहमति के नाम पर गैर-कानूनी नहीं रहेंगे?

1- गर्भ में पल रहे शिशु का लिंग परीक्षण? ध्यान दें हम अभी सिर्फ लिंग परीक्षण की बात कर रहे हैं।
2- बाल विवाह, यह भी दो परिवारों की आपसी सहमति से होता हो तो?
3- रिश्वत का लेन-देन, यह भी तो दो व्यक्तियों की आपसी सहमति पर आधारित है?

4- पहली पत्नी के रहते दूसरा विवाह? इसमें भी दो की आपसी सहमति हो?
5- मानव अंगों की खरीद फरोख्त, खून बेचने वाले लोगों का कृत्य? यदि इसमें भी आपसी सहमति सिद्ध हो जाये?


और भी बहुत से कृत्य हैं और देखिये सभी में वयस्कों का समावेश है, वयस्कों की सहमति है। अब यदि इनके गैर-कानूनी होने के बाद इनके बुरे प्रभाव, स्वास्थ्य पर प्रभाव, समाज पर प्रभाव, परिवार पर प्रभाव जैसे कारण गिनाये जायें तो समलैंगिकता से कौन सा स्वस्थ संदेश गया है? समलैंगिक सम्बन्ध से क्या स्वास्थ्य उत्तम और काया निरोगी रहती है?
इस पोस्ट को बड़ा नहीं करेंगे। बस सवालों के जवाब की अपेक्षा है।

7 टिप्‍पणियां:

  1. सबसे बड़ी बात जो मुझे लगता है वह यह की प्रकृति को खुले आमं चुनौती है, जो की सहि नही है। और हाँ एक बात और कि भारत देश अपने संस्कृति के लिए ज्यादा जाना जाता है, और इस तरह के सम्बन्ध हमारे संस्कृति को धूमिल करने का काम कर रहें है।

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  2. मिथिलेश जी की बात से सहमत . इस तरह के सम्बन्ध हमारे संस्कृति को धूमिल करने का काम कर रहें है।
    .. हैपी ब्लॉगिंग

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  3. aise swalon ki taraf dhyan kahan hai? abhi to jaroorat SHARIR hai. aapki baat par dhyan baad men diya jaayega.

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  4. मुद्दे अच्छे न कहे जायें बल्कि गम्भीर कहे जायें, शाबास।

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  5. समलेंगिकता को किसी समाज की स्थापित सामाजिक एवं नैतिक मान्यताएं स्वीकार नहीं कर सकतीं क्योकि यह प्रकृति के विरूद्व है .........सभ्यता के विकास के साथ -साथ अनेक प्रकृति -विरूद्व प्रवृत्तियां अस्तित्व में आयीं है कुछ परिस्थितिजन्य और कुछ मजबूरी में जिन्हें न चाह कर भी समाज व शासन को मान्यता देनी पड़ती है .यह भी कुछ ऐसी ही विकृति है, ...एक लोकतान्त्रिक देश में इनकी प्रासंगिकता की चर्चा होनी चाहिए .. ..आपने कुछ प्रश्नों के उत्तर चाह कर एक अच्छी बहस की शुरुआत करने की चेष्टा की है ,..बधाई ...स्व० बलवीर सिंह 'रंग' की लाइनें याद आ रहीं हैं -
    अनेकों प्रश्न ऐसे हैं ,jo दुहराए नहीं जाते;
    कुछ उत्तर भी ऐसे हैं ,जो बतलाये नहीं जाते.

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