12 जून 2009

यादें हमारे अतीत को जिन्दा रखतीं हैं

कभी-कभी कोई बहुत पुरानी चीज, कोई सामान, कोई किताब सामने आती है तो गुजरे हुए सारे लम्हे एक-एक करके याद आते हैं। आज सामान सही करते वक्त अपनी पुरानी अटैची को खोला तो बचपन की बहुत सी यादें ताजा हो गईं। कुछ तो सामान ऐसा था कि देख कर स्वयं पर हँसी आ रही थी कि इसे क्यों सँभाल कर रखा है?
संग्रह करने की आदत बहुत छोटे से ही हमारे बाबाजी ने डलवायी थी। वे अकसर कहा करते थे ‘‘सकल चीज संग्रह करो, कोऊ दिन आवै काम।’’ हालाँकि हमारे द्वारा संग्रह की गईं वे वस्तुएँ न तो बचपन में पुनः काम आईं थीं और न ही आज काम आने लायक बचीं हैं।
इन सामानों में कुछ चित्र थे जो हमने अखबारों, मैगजीनों, पुरानी किताबों आदि से काटे थे। एक छोटा-मोटा सा एलबम था जिसमें उन चित्रों को सजाया गया था। कुछ डाक टिकट भी निकले तो कुछ सिक्के, एक आना, दो आना के। यह सब हम मित्रों के द्वारा, भाई बहिनों के द्वारा आपसी आदान-प्रदान के बाद इकट्ठा हुए थे।
इन्हीं में एक सामान ऐसा भी मिला जिसके द्वारा अपनी एक दुर्घटना याद आ गई। पहली-पहली बार साइकिल चलाने के समय बुरी तरह जा भिड़े थे एक दीवार से। यह घटना है जब हम कक्षा 5 में पढ़ रहे थे, सन् 1982-83 की बात होगी। दीवार के आसपास गिट्टी-पत्थर का ढेर और बगल में बिजली का खम्बा। टक्कर इतनी तेज थी कि सिर से खून निकलना शुरू हो गया और हाथ-पैर में अच्छी-खासी खरोंचें आ गईं। साइकिल टूटी सा अलग।
सामान था टूटी हुई साइकिल का पैडल। उस समय घर की साइकिल तो चलाने को मिलती नहीं थी, चलाना तो दूर की बात छूने को भी नहीं मिलती थी। स्कूल जाते समय एक छोटी सी दुकान पड़ती थी जो किराये पर साइकिल देता था। बस हम तीन-चार मित्रों ने पैसे जोड़कर एक साइकिल किराये पर ले ली। सीखने-सिखाने में गिरे, चोट खाई, खुद टूटे और साइकिल भी तोड़ी।
साइकिल वाला पिताजी से परिचित था, डर लगा कि कहीं यह शिकायत न कर दे कि हम लोगों ने साइकिल किराये पर ली थी। उसकी चिरौरी की और उसे किसी तरह मना लिया कि वह घर पर खबर न करे। होते-होते सब कुछ ठीक रहा। हम पैडल तोड़ चुके थे, साइकिल वाले से तो कह दिया कि कहीं चलाते में गिर गया है पर डर था कि कहीं वह इधर-उधर पड़ा न देख ले इस कारण हम अपने साथ घर ले आये। बाद में फेंकने को मन इस कारण नहीं हुआ कि जब भी उसे देखते तो अपने पहली बार साइकिल चलाने को याद कर लेते।
और भी दूसरा सामान देख कर लगा कि हम किस तरह अपनी यादों के भँवर में लिपटे होते हैं जो हमें रुलातीं भी हैं और हँसातीं भी हैं। यही यादें ही हैं जो हमें आज भी अपने अतीत से जोड़े हैं, अपनी विरासत से जोड़े हैं।

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