10 मई 2009

माँ का सम्मान भी व्यावसायिक बन गया

10 मई, ‘मदर्स डे’ मना लिया गया, माँ को याद कर लिया गया। इस पोस्ट के लिखने के बारे में उस दिन से ही विचार करना शुरू कर दिया था जिस दिन से समाचार-पत्रों में, टी0वी0 में इस दिन के लिए विज्ञापन दिखा। माँ एक अक्षर होने के बाद भी अपने आप में सम्पूर्णता लिए होता है। हिन्दी भाषा के अनुसार किसी भी रचना में वर्ण का महत्व होता है। एक वर्ण अपने आप में पूर्णता नहीं लिए होता है। दो या दो से अधिक वर्णों के योग से एक शब्द का निर्माण होता है; दो या दो से अधिक शब्दों के मेल से एक वाक्य की रचना होती है; दो या दो से अधिक वाक्यों के मेल से एक अनुच्छेद बनता है और इसी तरह एक पूरी रचना निर्मित हो जाती है।
इसके ठीक उलट माँ एक वर्ण होने के बाद भी सम्पूर्ण है। आज मदर्स डे से सम्बन्धित मैसेज देखकर (मोबाइल और ई-मेल पर) देखकर लगा कि माँ जैसा पावन रिश्ता भी आज व्यावसायिकता में रंग दिया गया है। हो सकता है कि बहुत से लोग हमारे विचारों से सहमत न हों (वैसे भी ऐसे लोगों का कोई इलाज नहीं) पर हमारा मानना है कि माँ के लिए सम्मान व्यक्त करने के लिए एक दिन विशेष का होना उसकी महत्ता को ही कम करता है।
बहुत से लोगों का मानना है कि कम से कम इस एक दिन के बहाने ही हम माँ के प्रति अपने मनोभावों को व्यक्त कर लेते हैं (ऐसा आज हमने कई लोगों से पूछ कर देखा और पता किया) क्या वाकई आज माँ के प्रति आदर सम्मान व्यक्त करने के लिए किसी दिन की जरूरत है?
देखा जाये तो इस प्रकार की संस्कृति का विकास विदेशी सभ्यता के कारण ही हममें विकसित हुआ। विदेशों में हमें इस बात की कतई जानकारी नहीं कि वहाँ इस प्रकार के रिश्तों की आपस में क्या अहमियत है (बाबा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, मामा-मामी, भाई-भाभी, बहिन-बहनोई , माँ-पिता, पत्नी, अन्य रिश्ते) सम्भव है कि वहाँ की भागदौड़ भरी जिन्दगी में माँ के लिए भी समय न निकल पाता हो और इस तरह के एक दिन की अवधारणा का विकास हो गया हो?
हम यदि अपने देश की बात करें तो माँ का रिश्ता इस प्रकार का रिश्ता है जिसे किसी भी प्रकार से परिभाषित नहीं किया जा सकता है। कोई व्यक्ति अपने मन में रिश्तों के जितने भी रूप तय कर ले सभी को वह माँ में समाहित देख सकता है। एक व्यक्ति रिश्तों की गरिमा के जितने स्वरूप निर्धारित करले वह सब माँ के द्वारा देख सकता है। माँ के लिए दो-चार शब्द लिख देना, कविता लिख देना अवश्य ही उसके प्रति हम कुछ समर्पण जैसा ही भाव रखते हैं पर क्या उसे भी एक दिन में ही बाँधा जाये?
आज जब सभी प्रकार से रिश्तों की गरिमा नष्ट हो रही है, आपस में मधुरता समाप्त हो रही है, रिश्तों के नाम पर संशय के बादल घिरे रहते हैं इस विषम स्थिति में भी माँ अपने आँचल की छाँव में मन को शीतलता देती है। प्रातःकाल उठकर ही माँ को याद कर लेना उसके प्रति सम्मान व्यक्त करना है। माँ कोई गिफ्ट नहीं चाहती, माँ कोई औपचारिकता नहीं चाहती, माँ कोई समारोह नहीं चाहती, माँ अपने लिए कोई दिन विशेष नहीं चाहती....बस माँ के लिए आदर, उसके लिए सम्मान ही उसका समारोह है, उसका गिफ्ट है।
(जो नारी-समर्थक इस दिन को एक दिन नारी के सम्मान के रूप में परिभाषित करना चाहते हैं उनसे हाथ जोड़ कर निवेदन है कि कम से कम माँ को केवल नारी जैसे दो शब्दों में न बदलें, माँ सिर्फ माँ है; वह जननी है; पूज्या है; पावन है। उसे तर्क-वितर्क, विमर्श की घालमेल से दूर ही रखो)

1 टिप्पणी: