14 जनवरी 2009

छोटे-छोटे सवाल बहुत हैं पर....

कुछ छोटी-छोटी सी बातों को आजकल देख रहे हैं। इससे पता चलता है कि किस तरह सोच बदलती है, किस तरह लोगों के काम करने का नजरिया बदलता है. यही सोच कर इस पोस्ट में किसी एक विषय पर न लिख कर सभी विषयों पर थोड़ा-थोड़ा लिख रहे हैं.

  • उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ख़ुद को दलित की बेटी घोषित करती हैं और ख़ुद करोड़ों के मकान में रहती हैं. हर बार की तरह इस बार भी अपने जन्मदिन पर पार्टी के मिशन के लिए चन्दा माँगा जा रहा है. मायावती का कहना है कि चंदा आम आदमी से ही लिया जाए, धन्ना सेठों से नहीं. इसके बाद भी धन्ना सेठ आगे-आगे आकर लाखों में चंदा दे रहे हैं और न देने वाले बेचारे मर-पिट रहे हैं।
  • देश को आर्थिक शक्ति बनाने वाले व्यापारिक घराने ख़ुद को मंदी की मार में घिरा मान रहे हैं। एक प्रमुख कंपनी सत्यम के पास अबतक सबसे अच्छी पहचान थी पर अब उसके पास जनवरी माह का वेतन देने लायक धन भी नहीं है. आख़िर किस तरह के आर्थिक सशक्त हैं हम?
  • पाकिस्तान के ख़िलाफ़ लगातार सबूत हमारा देश जुटा चुका है पर इसके बाद भी हम ये दुहाई कर रहे हैं कि यदि पाकिस्तान कार्यवाही नहीं करता है तो हम उसके साथ किसी तरह के सम्बन्ध नहीं रखेंगे। माना कि युद्ध पाकिस्तान से होती समस्या का कोई विकल्प नहीं है पर हम उसके साथ रिश्ते क्यों और किस लिहाज से रख रहे हैं?
  • राजनीति में परिवारवाद इस कदर हावी है कि हम सोचते हैं कि पूरा परिवार हमेश एक साथ उसी राजनैतिक दल की सेवा करता रहे। संजय दत्त ने समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने का मन क्या बनाया हर तरफ़ सवालात खड़े हो गए. सुनील दत्त, नर्गिस के नेहरू, इंदिरा परिवार के साथ संबंधों को बताया जाने लगा. क्या एक दल के प्रति निष्ठां इन नेताओं में भी बची है जो संजय दत्त से अपेक्षा कर रहे हैं?
  • मीडिया पर अंकुश लगाने वाला कानून कुछ दिनों के लिए सरकार ने रोक दिया है. मीडिया में एकदम से खुशी की लहर सी दौड़ गई. अब कुछ दिन मीडिया फ़िर किसी घटना का पोस्टमोर्टेम करेगी, किसी को अपराधी बनाने का प्रयास करेगी, किसी को आरोपी बताएगी और फ़िर किसी दिन सारे मामले से पल्ला झाड़ लेगी. आरुषि हत्याकांड इसका एक प्रमुख उदाहरण है. और भी हैं जो सभी को पता हैं.........

और बहुत सी घटनाएं ऎसी हैं जो आजकल समाचारों की सुर्खियों में रहतीं हैं। हम सबको विचलित करतीं हैं, हमारे नेताओं, हमारी मीडिया, हमारे अर्थतंत्र, हमारे समूचे तंत्र का कच्चा चिठ्टा खोलतीं हैं पर क्या हमें इस बारे में सिर्फ़ लिखना और पढ़ना मात्र ही चाहिए?

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