10 जनवरी 2009

पढ़े-लिखों की राजनीति

कई बार मुछ घटनाएं इस तरह से सामने आतीं हैं कि लगता ही नहीं कि हम किसी पढ़े-लिखे समाज का अंग हैं या फ़िर इस तरह की बात करने वाले भी पढ़े-लिखे हैं. अक्सर समाज में बुद्धिजीवी वर्ग को जातिवाद, क्षेत्रवाद आदि जैसी बातों की बुराई करते देखा जाता है पर जैसे ही मौका मिलता है यही वर्ग इस तरह की बातें करने लगता है. कुछ इसी से मिलती जुलती बात आज ही देखने में आई है. हुआ ये कि हमारे क्षेत्र में विश्वविद्यालय झाँसी में है "बुंदेलखंड विश्वविद्यालय." कल यानि कि 10 जनवरी को विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ "बूटा" का चुनाव होना है. इस चुनाव की परिधि इस विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने वाले महाविद्यालय आते हैं, इन महाविद्यालयों में शासकीय महाविद्यालय शामिल नहीं होते हैं. इन महाविद्यालयों के सभी नियमित प्राध्यापक ही इस चुनाव में मतदान कर सकते हैं.

इन चुनाव में समीकरण कुछ इस तरह बने कि किसी की समझ में ये नहीं आ रहा है कि किसे वोट दिया जाए और किसे नहीं. अध्यक्ष पद के लिए तो दो ही दावेदार हैं और ज्यादातर लोगों का रुझान स्पष्ट है कि कहाँ वोट देना है पर महामंत्री पद के लिए तीन प्रत्याशी होने के कारन लोगों में असमंजस की स्थिति है. इस असमंजस की आड़ में जब ये तय नहीं हो पाया कि कौन आगे है और कौन पीछे तो प्रत्याशियों की तरफ़ से उनके समर्थकों की तरफ़ से जातिवाद का और क्षेत्रवाद का खेल शुरू किया गया. एक जाति विशेष को जिताने और एक जाति विशेष को हराने का खेल शुरू किया गया. कुछ मतों को क्षेत्र के नाम पर बटोरना शुरू किया गया। जाति, क्षेत्र की राजनीति इस तरह के छोटे से चुनाव में देखने को मिली जिसका कि कोई बहुत बड़ा राजनैतिक लाभ भी नहीं है. देखा जाए तो ये चुनाव एक तरह की व्यक्तिगत राजनीती का परिचायक हैं पर इनमें भी इस बार एक अलग तरह की राजनीती होते दिख रही है.

शाम गए और देर रात तक जो खबरें मिल रहीं थी उनको सुन कर लग रहा था कि आज सारी रात यही उठापटक चलेगी कि कैसे किस मत को किस आधार पर प्राप्त किया जा सके. बहरहाल जिस चुनाव की कोई बहुत अहमियत न हो उसमें इस तरह की राजनीती बताती है कि देश की प्रमुख राजनीति में किस कदर ये तत्त्व हावी हो चुके हैं. देश के किसी भी स्तर के चुनावों में जाति, क्षेत्र की राजनीति का हम सभी विरोध करते हैं और नेताओं को कोसने का काम करते हैं, उनको अनपढ़, बदमाश, अपराधी और भी न जाने क्या-क्या कह कर अपनी भडास निकाल लेते हैं, क्या इन पढ़े-लिखे लोगों (महाविद्यालय के प्राध्यापक) के चुनाव में इस तरह की राजनीति को आप साफ़ कहेंगे? क्या ये लोग किसी भी राजनेता से कम हैं? क्या ये समाज को शिक्षित करने का कार्य सही ढंग से कर रहे हैं? सवाल बहुत हैं पर जवाब...............??????????

1 टिप्पणी:

  1. राजनीति में साम दाम दंड भेद वाली नीति रहती है-सब कुछ जायज माना जाता है. फिर भले छोटे स्तर के चुनाव हों या बड़े स्तर के.

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